ये कहानी है संजु के रिश्तों की. एक तरफ तो उसकी प्यारी माँ है जो न जाने क्यों संजु को लड़कियों की तरह रहने को प्रेरित करती है, और दूसरी ओर है ऋतु, जिससे संजु को प्यार है.

भाग ९: मासूम
अब मुझसे इतनी बार जिद की गई थी कि मैं भी इस कहानी के लिए एक भाग लिखूँ, तो आखिरकार श्रुति की इस कहानी का एक भाग लिख रही हूँ। किसी और की कहानी मे अपना योगदान देना आसान नहीं होता है, पर मेरा यह एक प्रयास है। पढ़कर बताइएगा कि आपकी अनुपमा मे अब भी वो बात रही है या नहीं? – अनुपमा त्रिवेदी
ऋतु अब तक घर जा चुकी थी। संजु और उसकी मम्मी सुधा ने भी दोपहर का खाना खा लिया था। आज जो कुछ हुआ उसके बाद से संजु की मायूसी कम हो गई थी, बल्कि वो तो बहुत खुश था। अब बस अपने कमरे मे जाकर वो आराम करना चाहता था। बस अपनी खुशी मे वो धीरे धीरे अपने कमरे की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, और साथ ही साथ अपने खूबसूरत दुपट्टे को निहारते हुए बड़े ही सलीके से संवार रहा था। उसने ऋतु को अक्सर देखा था कि वो कैसे अपने दुपट्टे के फिसल जाने पर उसे वापस कंधे पर सजाती है। ऋतु अपने एक हाथ से दुपट्टे को बीच मे सीने के पास पकड़ कर, दूसरे हाथ से पहले एक ओर दुपट्टे को अपने कंधे पर चढ़ाती थी, और फिर उसके बाद हाथों को बदलकर कंधे के दूसरे हिस्से पर दुपट्टे को सुधारती थी। संजु को ये करने मे बड़ा मज़ा आ रहा था।
संजु को अच्छी तरह याद था कि आज से शायद लगभग २-३ साल पहले ऋतु ने पहली पहली बार सलवार कुर्ती पहनना शुरू की थी। उसके पहले तो वो हमेशा फ्राक या फिर स्कर्ट इत्यादि पहना करती थी। उस वक्त शायद वो ११-१२ साल की रही होगी, और उसकी मम्मी ने उससे हफ्ते मे १-२ बार सलवार कुर्ती पहनने को कहा था। उन शुरुआती दिनों मे ऋतु को अपने दुपट्टे को संभालने मे बड़ा मज़ा आता था। उसे लगने लगा था कि वो बड़ी हो गई है। उसे बार बार दुपट्टा संभालते देखकर संजु उसे खूब चिढ़ाया करता था। और ऋतु उससे नाराज होकर भाग जाया करती थी। उन दोनों का रिश्ता था ही ऐसा – कभी गुस्सा, कभी प्यार, कभी मस्ती, कुल मिलाकर एक अच्छी दोस्ती थी उन दोनों मे। बचपन की इस दोस्ती मे कभी इस बात का एहसास ही नहीं रहता था कि उनमे एक लड़का है और एक लड़की। पर जब उम्र बढ़ती है, ये लड़के और लड़की का फर्क जाने अनजाने बढ़ता चला जाता है। कह सकते है कि ऐसा करने के पीछे एक व्यावहारिक जरूरत है कि एक लड़की को एक लड़के से कुछ अलग तरह से जीवन जीना पड़ता है। पर क्या ये सच मे व्यावहारिक जरूरत है? यदि लड़के और लड़की को एक ही तरह से आजादी से बढ़ने दिया जाता तो क्या पता शायद संजु या कोई और लड़का अपनी पसंद से ही खुद के लिए स्कर्ट पसंद करता और ऋतु की तरह कोई लड़की शायद शुरू से ही जींस पसंद करती।
समाज धीरे धीरे कर के बदल रहा था फिर भी कम से कम ऋतु और संजु के जीवन मे परवरिश पारंपरिक तरह से ही हो रही थी। इसलिए ऋतु को उस उम्र मे सलवार कुर्ती पहनने के लिए उसकी मम्मी ने कहा था। चाहे उसे इस बात के लिए संजु जितना भी छेड़ता था, लेकिन फिर भी ऋतु को अपनी चुन्नी या दुपट्टे से बहुत प्यार था। संजु के छेड़ने के बावजूद एक खुशी थी ऋतु के दिल मे कि वो अब बड़ी हो रही है। और समय के साथ ऋतु और बड़ी होती गई और उसकी स्कर्ट की जगह अब हमेशा हमेशा के लिए सलवार कुर्ती ने ले ली थी।
देखा जाए तो ऋतु की उस वक्त की खुशी और संजु की आज की खुशी, दोनों ही नई नई लड़की बनने की खुशी थी। कुछ साल बाद ही सही, पर अब संजु भी उस समय की ऋतु की तरह ही महसूस कर रहा था। एक अजीब सी खुशी थी अपने इस नए लिबास को पहनने की। संजु को पिछले कुछ समय मे अपने नए कपड़ों से प्यार हो गया था। अब तो उसे अपने लड़के वाले कपड़े पसंद ही नहीं आते थे, बहुत प्लेन और बोरिंग लगने लगे थे वो सभी। शायद वो माने या न माने पर उसे अपने स्तनों से भी प्यार था, आखिर उनके उभार से उसके कपड़ों की शोभा और भी बढ़ जाती थी। और फिर उसके लंबे घने बाल तो उसका गहना थे। पोनीटेल या साधारण चोटी बनाने के अलावा उसने कभी कोई हेयर स्टाइल नहीं की थी, पर उसके बालों की खूबसूरती बड़ी ही प्राकृतिक थी।
जब मन खुश हो तो सब कुछ अच्छा लगता है। इसी खुशी मे संजु अपने कमरे मे आया तो उसे उसकी नारंगी रंग की साड़ी, पेटीकोट और ब्लॉउज़ फर्श पर बिखरी हुई मिली। बेचारी ऋतु जल्दी जल्दी मे अपने कपड़े बदलकर अपने घर भागी थी। उसकी मम्मी बड़ी देर से, बगल वाले घर से, जहां वह रहती थी, वहीं से आवाज दे रही थी। संजु का बड़ा मन था कि वो पूरा दिन ऋतु के साथ बिताए, उसके साथ बातें करे, पर अब किसी और दिन सही।
संजु ने अपनी प्यारी सी साड़ी को बड़े ही नजाकत से फर्श से उठाया। “मेरी साड़ी”, उसने मन ही मन सोचा और बड़ा खुश हुआ। अपने साड़ी के प्रति प्यार को तो अब उसने ऋतु को भी समझा दिया था। उसकी अपनी साड़ी को उसके पहले ऋतु ने पहन लिया था, पर कोई बात नहीं, ऋतु तो उसकी अपनी है! उसने अपनी साड़ी को अपने दोनों हाथों के बीच पकड़ कर अपने चेहरे के पास करीब लाकर अपने चेहरे पर छूकर महसूस किया और उसकी खुशबू को महसूस किया। “मेरी साड़ी” सोचकर ही वो खुश हुआ जा रहा था। उस साड़ी मे वो ऋतु का प्यार भी महसूस कर रहा था, और उसके दिमाग मे वह साड़ी पहनी हुई ऋतु का खिलखिलाता चेहरा भी उसे दिख रहा था। ऋतु, सचमुच उसे बहुत खूबसूरत लग रही थी। पर यह भी कितना अजीब है न, एक ओर तो वो ऋतु के बारे मे सोच रहा था, और साथ ही साथ मन ही मन ये भी सोच रहा था कि वो खुद इस साड़ी को पहनकर कैसा लगेगा?
उसके दिमाग मे तुरंत विचार आया और वो आईने के सामने साड़ी को अपने सीने पर ढँकते हुए अपने एक कंधे पर फैलाकर खुद को देखने लगा। “बहुत सुंदर लगेगी तू संजु ये साड़ी पहनकर!”, उसने मन ही मन सोचा। अपनी सोच मे संजु खुद को लड़की मान रहा था!
खुद को कुछ देर देखने के बाद, संजु ने बड़ी ही नजाकत से साड़ी को मोड़ना शुरू किया। जितना सुंदर पल साड़ी पहनने का होता है, उतना ही सुंदर पल साड़ी उतारने के बाद उसको तह करने का होता है। साड़ी की पूरी लंबाई पर हाथ फेरकर ही उसे तह किया जा सकता है, और इस दौरान पूरी साड़ी को देखने का मौका भी मिलता है। संजु यह काम बड़े ही जतन से कर रहा था ताकि साड़ी को बिल्कुल परफेक्ट तरीके से तह कर सके। उसकी साड़ी की सुनहरी बॉर्डर उसका मन मोह रही थी। साड़ी पहनने की उसकी तमन्ना तो पिछले कुछ समय से वैसे ही बढ़ गई थी, पर आज तो उसका मन और भी कर रहा था। पर अभी उसकी मम्मी थकी हुई थी। वो उनसे अभी साड़ी पहनाने को नहीं कह सकता था। साड़ी को मोड़ने के बाद संजु ने अपने पेटीकोट और ब्लॉउज़ को भी तह किया और बेहद सलीके से हैंगर पर टाँगकर अपनी अलमारी मे रख दिया। अपनी अलमारी मे अपनी साड़ियाँ और सलवार सूट देखकर उसे बड़ा गर्व महसूस हुआ। यूं तो उसकी अलमारी मे अधिकांश जगह उसके लड़कों वाले कपड़ों से भरी हुई थी, पर अब उसकी नजर वहाँ जाती ही नहीं थी।
दोपहर के इस समय मे, संजु अब आकर अपने बिस्तर मे लेट गया। जागती आँखों के साथ वो सपने देखने लगा और अकेले ही मुस्कुराने लगा। कभी सपनों मे ऋतु दिखती तो कभी वो खुद ऋतु की तरह कपड़े पहने हुए खुद को देखता। और धीरे धीरे खुली आँखें बंद हो गई, और उसे नींद आ गई। इस वक्त एक प्यारी सी लड़की अपने सपनों की दुनिया मे खो गई थी। उसके भविष्य मे क्या है, ये तो वो नहीं जानती थी, पर इतना तो तय था कि संजु एक सामान्य लड़की बनकर तो नहीं रहेगी।
“संजु बेटा … बेटा…”, ये संजु की मम्मी सुधा की आवाज थी जो संजु को जगा रही थी। “उठ जा बेटा, अब और कितनी देर सोएगी? ४ बजने वाले है”, माँ ने कहा।
“माँ! सोने दो न। कितनी अच्छी नींद आ रही है।”, चैन की नींद मे सोये संजु ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।
“अभी ज्यादा सोएगी तो फिर रात को नींद नहीं आएगी। और फिर कल सुबह स्कूल भी तो जाना है।”, माँ ने प्यार से संजु के सर पर हाथ फेरते हुए कहा और संजु के सर के बगल मे आकर बैठ गई। संजु ने भी अपनी माँ की गोद मे अपना सर रख दिया।
“एक शर्त पर उठूँगी माँ। तुम पहले मुझे अपनी गोद मे समा लो और मुझे प्यार से उठाकर नीचे के कमरे मे ले चलो”
“इतनी बड़ी हो गई है तू, पर बातें वही बच्चों वाली! तुझे अब अपनी गोद मे कैसे समाऊँ मैं?”, माँ ने भी बहुत प्यार से संजु से कहा और दुलार से उसके बालों पर अपनी उँगलियाँ फिराती रही।
माँ के कहने पर संजु ने अब कम से कम अपनी आँखें खोल ली थी। पर माँ की गोद से सर हटाने की इच्छा किसे होती है भला? माँ की गोद मे उनकी साड़ी मे मुंह छिपाकर हर बच्चा प्यार और सुरक्षा महसूस करता है। संजु को हमेशा से ही अपनी माँ के साड़ी के आँचल के नीचे अच्छा लगता था, पर अब साड़ी के प्रति नए प्यार की वजह से वो माँ की साड़ी के डिजाइन को भी नई दृष्टि से देख रहा था। संजु के दृष्टिकोण मे एक नया बदलाव था। उसे अपनी माँ बहुत सुंदर लगती थी, और फिर अब माँ की साड़ी भी उसे अच्छी लग रही थी। उसका दिल तो किया कि माँ से कहे कि माँ मुझे अपनी तरह साड़ी पहना दो। पर वो ऐसा कुछ कहता उसके पहले ही उसकी माँ ने उससे कुछ कहा।
“संजु, तुझे कितनी बार कहा है कि खुले बालों के साथ मत सोया कर। सोते वक्त हमेशा चोटी या जुड़ा बनाकर सोना चाहिए। लो, अब गूँथ गए है न सारे बाल।”, माँ ने बालों मे अपनी उंगली से उलझन को सुलझाने की कोशिश की।
“एक दिन न सारे बाल झड जाएंगे, तब पता चलेगा। ये लड़की तो मेरी सुनती ही नहीं है।”, सुधा भी एक माँ के रूप मे भारी ड्रामा करती थी। अपनी माँ के ड्रामा को देखकर संजु भी हंस दिया।
“कितने भारी भरकम डाइअलॉग मारती हो तुम भी न माँ!”, संजु ने कहा और उठकर बिस्तर पे माँ की बगल मे बैठ गया।
ऐसा नहीं है कि संजु इस तरह अपनी माँ के साथ बात करते हुए खुद को पूरी तरह लड़की समझता था या फिर उसके हाव भाव पूरी तरह लड़कियों के होते थे। पर माँ के सामने कोई कमी भी रह जाए तो फर्क नहीं पड़ता था। उसे तो अपनी माँ का बेटा होने मे जितनी खुशी मिलती थी, माँ की बेटी होने मे भी उतनी ही खुशी मिलती थी। क्योंकि उसके माँ के प्यार मे कभी कोई कमी नहीं होती थी चाहे संजु का जो रूप हो। बस प्यार के इजहार करने का तरीका अलग होता था या फिर बातें कुछ अलग होती थी।
“चल जाकर कंघी ला, पहले तेरे बाल सुलझा देती हूँ।”, सुधा को संजु के बालों की कुछ ज्यादा ही फिक्र थी। एक माँ जो ठहरी।
“लाती हूँ।”, कहकर संजु बिस्तर से उठा और पैरों को धमकते हुए कमरे मे ही अपनी अलमारी के पास रखी कंघी लेकर आया।
“लो सुलझा दो मेरे बालों को।”, उसने माँ को कंघी दी और माँ की ओर पीठ कर बैठ गया। माँ भी उसके बालों पर कंघी फेरने लगी।
“आउच, जरा धीरे माँ!”, कंघी जब बालों के बीच मे फंस गई तो संजु ने कहा।
“… और करो अपनी मनमानी, मेरी बात मानी होती तो अभी ये सब न हुआ होता।”, माँ बोली।
“माँ, तुम तो आज पूरे मूड मे हो। बात क्या है?”, संजु ने हँसते हुए पूछा।
एक हल्का सा सवाल था ये पर सुधा खुद अपने बचपन मे चली गई जब उनकी माँ उसे इस तरह डांटा करती थी। जाने अनजाने सुधा भी वही कर रही थी।
“माँ, मैं एक बात सोच रही थी। …. वो आपके पसंद वाले टीवी सीरीअल की हिरोइन की हेयर स्टाइल मुझे बड़ी पसंद है। सोच रही हूँ कि अपने लिए भी मैं … ”, संजु की ऐसी कोई चाहत नहीं थी पर माँ को छेड़ने के लिए उसने ये बात कही। वो जानता था कि माँ क्या कहेगी।
“कोई जरूरत नहीं है किसी भी हेयर स्टाइल की। चुपचाप चोटी बनाकर रहा करो। जब तुम बड़ी हो जाओगी, तब अपनी मर्जी चला लेना, पर तब तक … सिर्फ चोटी!”, सुधा तो सचमुच नाराज हो गई। तो संजु ने पलटकर माँ को गले लगा लिया। और माँ भी मुस्कुरा दी।
माँ से गले लगने के बाद संजु एक बार फिर नजरे झुकाकर अपनी माँ की साड़ी के पल्लू को पकड़ कर खेलने लगा, और फिर झुकी हुई नज़रों के साथ माँ से कहा, “माँ, एक बात बोलू?”
संजु जब भी ऐसी कोई बात कहता था जिसमे वो अपनी दिल की चाहत व्यक्त करने वाला होता था, तब सुधा उस बात पर कुछ खास ध्यान देती थी। क्योंकि संजु ने पिछले कुछ समय मे अपने दिल की बातें कहना कम कर दिया था।
संजु हमेशा से ही ऐसा नहीं था। बहुत बातूनी तो था ही, और ऊपर से दिल मे जो आए अपनी माँ से कह देता था। क्योंकि उसके पापा साल मे ६ महीने तो बाहर रहा करते थे, इसलिए उसकी मम्मी ने उसके साथ ऐसा रिश्ता बना रखा था कि संजु उनसे कुछ भी कहने से न डरे। पर ये सब बदलने लगा था जब से संजु के शरीर मे बदलाव आने लगे थे। एक छोटी सी उम्र मे उसको इतनी बड़ी बड़ी बातें खुद के बारे मे समझनी पड़ी थी जो देखा जाए तो, हमारे समाज के अधिकांश वयस्क भी नहीं समझ सकते। उन बातों का संजु पर बड़ा असर पड़ा था और वो धीरे धीरे चुप होता चला गया। पर ये सब अब एक बार फिर से बदलने लगा था। जिस दिन संजु ने पहली बार साड़ी पहना था, और उसके बाद पापा और ऋतु से बात करने के बाद उसका आत्मा-विश्वास एक बार फिर बढ़ने लगा था। लेकिन ये बढ़ा हुआ विश्वास तब ज्यादा प्रखर रूप से उभरता था जब वो घर मे लड़की के रूप मे रहता था। आखिर एक आजादी और खुलापन जो महसूस होती थी उसे। वरना स्कूल मे तो अपने बालों को छिपाए और अपने उरोजों को अपनी स्पोर्ट्स ब्रा मे छिपाकर रखते हुए उसका दिन एक लड़के के रूप मे बड़ी कुंठा मे बीतने लगा था, और ये कुंठा घर आने के बाद भी काफी देर तक दूर नहीं होती थी। लेकिन कुछ देर बीत जाने के बाद संजु जब घर मे लड़कियों के कपड़े मे होता था, तो एक बार फिर उसका व्यक्तित्व निखरने लगता था।
एक माँ के लिए सबसे ज्यादा जरूरी उसके बच्चे की खुशी होती है। और यदि संजु लड़की के रूप मे खुश रहता है तो सुधा के लिए वही सही था। अब उसकी बेटी उससे कुछ कहना चाह रही थी तो वो भी उसे सुनना चाहती थी।
“बोल न बेटा, क्या बात है?”, सुधा ने संजु के चेहरे को अपने हाथों से उठाते हुए कहा। मगर संजु फिर भी शरमाते हुए नीचे देखते रहा।
“माँ, तुम मुझे … तुम मुझे अपनी तरह साड़ी पहनना सिखाओगी?”, संजु ने आखिर अपने दिल की बात कह ही दिया। वो भी चाहता था कि ऋतु की तरह वह भी खुद से साड़ी पहन सके।
उसकी चाहत सुन उसकी माँ मुस्कुरा दी, “बस इतनी सी बात के लिए शर्मा रही थी? ठीक है, सीखा दूँगी तुझे किसी दिन।”
“किसी दिन नहीं माँ, आज ही सीखा दो मुझे!”, संजु बच्चे की तरह जिद करने लगा।
“आज? मगर इतनी जल्दी क्या है तुझे? ऋतु को देखकर तेरा भी मन कर गया? बहुत मानता है तू ऋतु को!”, माँ उसे छेड़ने लगी।
“माँ, तुम ऋतु को छोड़ो। मैं भी बस तुम्हारी तरह घर मे रोज साड़ी पहनना चाहता हूँ।”, आखिर मे संजु की बचपन की आदत अनुसार जिद करते वक्त उसके अंदर का लड़का जाग ही गया और उसने यह बात लड़कों की तरह की।
“रोज रोज? न बाबा न! तू इतनी जल्दी क्यों बड़ी होना चाहती है बेटा। अभी तो तू बहुत छोटी है।”, सुधा ने कहा।
“माँ! कभी मुझे कहती हो कि मैं बड़ी हो गई हूँ और तुम मुझे अपनी गोद मे नहीं उठा सकती, कभी कहती हो कि मैं अभी छोटी हूँ। तुम यदि मुझे नहीं सीखाना चाहती तो उस दिन क्यों पहनाई थी मुझे साड़ी? तुमही ने जिद की थी न कि संजु बेटा, एक बार ब्लॉउज पहनकर देख ले, संजु बेटा, एक बार साड़ी पहनकर देख ले, अपनी माँ के लिए इतना भी नहीं करेगी?”, संजु मुंह फुलाकर पलट कर बैठ गया। मुंह फुलाने मे संजु लड़का हो या लड़की, एक ही बात थी।
“वो तो मैं तुझे थोड़ी सी प्रैक्टिस करा रही थी ताकि खास अवसरों पर तुझे साड़ी पहनाऊँ तो तुझे मुश्किल न हो।”, माँ ने संजु को समझाने की कोशिश की।
“कैसे खास अवसर माँ?”
“हम्म .. जैसे दीवाली?”
“दिवाली! माँ, अभी जनवरी है! तो क्या साड़ी पहनने के लिए मुझे १० महीने इंतज़ार करना होगा!”, संजु अब नाराज होने का ड्रामा करने लगा। माँ और बेटी, दोनों ही ड्रामा करने मे एक्सपर्ट थे!
“ठीक है। मैं तुझे सीखा देती हूँ आज ही। पर रोज रोज पहनने के लिए नहीं। अभी तेरी उम्र सलवार, स्कर्ट या ड्रेस पहनने की है, साड़ी तो बड़ी होने के बाद पहनना ही है। बाद मे इस उम्र के कपड़े क्या पता तुझे पहनने को मिले न मिले।”, सुधा ने कहा। यूं तो आज के समय मे बड़े होने पर भी लड़कियां साड़ियाँ कम पहनती है, मगर माध्यम आकार के शहरों मे आज भी औरतें साड़ियाँ ही पहनती है। शायद इसलिए सुधा के ये विचार थे।
“अच्छा चल जा अपनी एक साड़ी लेकर आ।”, माँ ने जैसे ही ये कहा, संजु ने खुशी से माँ को गले लगा लिया।
“माँ, मुझे उन नई साड़ियों मे से कोई साड़ी नहीं पहनना है। मैं तुम्हारी तरह दिखना चाहती हूँ। तुम जो घर मे पहनती हो न, उन्ही मे से एक पहनूँगी मैं।”, संजु ने चहकते हुए कहा। कहीं न कहीं, चाहे कोई लड़की हो या कोई क्रॉसड्रेसर या कोई ट्रांसजेंडर, जब साड़ी पहनने की बात आती है तो उनके दिल मे एक चाहत हमेशा छुपी होती है, अपने अंदर अपनी माँ की झलक देखने की। संजु की भी यह चाहत थी, और साथ ही साथ आज वो अपनी मम्मी का किचन मे अपनी मम्मी की तरह ही साड़ी पहनकर हाथ बँटाना चाहता था।
अपनी बेटी की ये मासूमियत भरी चाहत सुनकर सुधा भी खुशी से मुस्कुरा दी। उसका दिल भर आया था संजु की बात सुनकर।
“चल फिर, मेरे कमरे मे चल। और अपने ब्लॉउज़ लेकर चलना, जिस साड़ी के साथ मैच हो जाए वही पहना दूँगी।”
“अभी लाई माँ!”, संजु की खुशी का ठिकाना न था।
सुधा की अलमारी तो संजु ने कुछ दिन पहले भी देखा था जिस दिन उसने अपने लिए साड़ियाँ चुना था, पर आज वो जिस दृष्टि से उसे देख रहा था, उसकी तो आँखें चमक उठी। एक से बढ़कर एक साड़ियाँ थी उसकी मम्मी के पास। वो अलमारी उसके लिए किसी भी खजाने से कहीं ज्यादा कीमती थी। शायद सुधा के लिए भी। कितनी यादों को समेटें हुए थी उसकी साड़ियाँ। उसकी अपनी शादी से लेकर संजु के जन्म के बाद तक के खास अवसरों की साड़ियाँ थी वहाँ। और उन्ही के साथ एक शेल्फ घर मे पहनने वाली साड़ियाँ थी जो घरेलू कामों को करते वक्त आसान हुआ करती थी। क्योंकि बच्चे अपनी प्यारी माँ को अक्सर उन्ही साड़ियों मे देखते है तो उनके लिए उन साड़ियों की अहमीयत भी कहीं से कम नहीं होती है।
“ये कैसी रहेगी माँ?”
“नहीं, वो बहुत पुरानी है। तुझे ऐसी वैसी साड़ी थोड़ी पहनने दूँगी। ये वाली देख, थोड़ी नई भी है, तेरी स्किन से भी मैच करेगी और ब्लॉउज़ से भी।”
“हाँ, ठीक है माँ!”, संजु के चेहरे मे चमक भी थी और थोड़ी सी लाज भी। कोई उसके दिल की धड़कन को सुन लेता तो वो जान पाता कि वो कैसा महसूस कर रहा है। आज वो पहली बार अपनी मर्जी से साड़ी जो पहनने वाला था।
माँ के इशारे के बाद वो झट से बाथरूम से सलवार कुर्ती उतारकर अपना ब्लॉउज़ और पेटीकोट पहनकर आया। ये ब्लॉउज़ थोड़ा पारंपरिक तरह का लंबी आस्तीन वाला था, जैसा कि वो चाहता था, उसकी माँ जैसा पहनती है। उसे पहनकर वो खुश था। हाँ, ब्लॉउज़ की कटोरियाँ थोड़ी ढीली ढीली थी, मगर उसका दिल खुशी से भरा हुआ था और तेजी से धडक रहा था।
“हमेशा सबसे पहले तो साड़ी को खोलकर देखना कि उसका पल किधर है और उसका दूसरा छोर किधर है। देख, ये फाल होती है जो साड़ी के निचले हिस्से मे पैरों के पास होती है। जिस साइड से फाल शुरू होती है, वो साइड पहले कमर मे इस तरह पेटीकोट मे फंसाना होता है।”, सुधा ने संजु को समझाया और संजु पूरी गंभीरता के साथ अपनी माँ के बात सुन रहा था।
“अब साड़ी को इस तरह एक बार अपनी चारों ओर लपेट कर इस तरह यहाँ टक करते है। और बचे हुए हिस्से को एक बार फिर अपने पर लपेट कर इस तरह कंधे से पीछे ले जाते है।”, सुधा उसे समझाने लगी की कैसे साड़ी के पल्ले की लंबाई को कम से कम घुटने तक सेट किया जाता है।
और फिर सुधा ने संजु को कमर पर प्लीट बनाना सिखाई। जब वो हो गया तो सुधा ने संजु को सीखाया कि पल्लू को किस तरह प्लीट करके सीने को कवर किया जाता है।
“ये क्या कर रही हो माँ?”, संजु ने माँ को रोकते हुए कहा।
“क्यों क्या हुआ?”
“माँ, मुझे तुम्हारी तरह साड़ी पहनना है। तुम देखो तुम खुद तो अपना पल्ला खुला रखी हो, और मुझे इस तरह प्लीट करके पहना रही हो।”, संजु ने शिकायती लहजे मे कहा तो सुधा हंस पड़ी।
“नई नई साड़ी पहनना शुरू की है, और तुझे खुला पल्ला चाहिए। बेटा, तुझे अभी मेरे साथ खाना बनाने मे भी तो मदद करना है। तुझसे खुला पल्ला न संभाला जाएगा। अभी तो ऐसे ही ठीक है।”
“पर माँ!”
“पर वर कुछ नहीं। जैसा बोल रही हूँ, वैसे कर।”, सुधा ने कहा और उसकी ब्लॉउज़ पे पिन लगाकर उसके पल्लू को कंधे पर फिक्स कर दिया।

“हाँ, अब लग रही है न परफेक्ट!”, माँ तो संजु को देखकर संजु से भी ज्यादा खुश थी। पर संजु अब भी थोड़ा मुंह फुलाकर खड़ा हुआ था क्योंकि उसका पल्लू माँ की तरह खुला नहीं था।
“अब ये ध्यान रखना, जब भी कुछ ऐसा काम हो जिसमे तेरे दोनों हाथों की जरूरत हो, तब अपने पल्लू को ऐसे पीछे से पकड़ कर सामने लाकर यहाँ नाभि के पास ऐसा टक करना। तो साड़ी का पल्लू काम करते वक्त बीच मे नहीं आएगा।”, माँ की प्यार भरी हिदायत सुनकर आखिर संजु मुस्कुरा ही दिया।
और फिर सुधा ने संजु को ड्रेसिंग टेबल के आईने के सामने ले जाकर दिखाया कि वो कितना खूबसूरत लग रहा है। अपनी माँ की परछाई ही तो लग रहा था वो! कमसिन उम्र मे साड़ी पहनकर एक अलग ही सौन्दर्य उभर आता है जो संजु मे भी दिख रहा था।
“थैंक यू, माँ!”, उसने कहा और माँ के गले लग गया।
“अच्छा एक बात और”, सुधा ने कहा और कुछ हेयर क्लिप निकालकर उसके बालों मे लगाते हुए बोली, “मैं नहीं चाहती कि तू कभी बिना चोटी बनाए रहा करे, पर आज के लिए तुझे खुले बाल रखने दे रही हूँ। ऐसे क्लिप भी लगाया कर ताकि बाल सामने चेहरे पर न आए। तेरे बालों को कुछ हुआ न तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, कह रही हूँ मैं!”
सुधा की चेतावनी मे भी प्यार भरा हुआ था।
इस वक्त शाम होने को आ गई थी, और रात का खाना बनाने का समय आ गया था। वैसे तो संजु अपनी माँ का इस वक्त हमेशा ही हाथ बँटाया करता था पर आज बात कुछ अलग थी। साड़ी पहनकर संजु बहुत खुश था और चहक रहा था। बड़े समय बाद अपने बेटे को इस तरह खुशी से बातें करते देख सुधा भी बहुत खुश थी। अब साड़ी मे ही सही, यदि उसका बेटा खुश होकर अपनी माँ से बातें कर रहा है तो उसमे बुरा क्या है?
किचन मे बातें करते हुए खाना बनाते हुए संजु बेहद बारीकी से अपनी माँ को भी देख रहा था कि वो किस तरह साड़ी पहनकर काम करती है। इतना आसान तो नहीं था कि पहली बार मे ही साड़ी पहनकर खुले बालों के साथ वो सभी काम तेजी से कर सके। पर धीरे धीरे सीख रहा था। उसकी माँ की बताई हुई पल्लू को नाभि के नीचे टक करने वाली तरकीब वाकई मे काम की थी। जब कुछ करते हुए उसका पल्लू वहाँ से निकल जाता तो बीच बीच मे आकर परेशान करता था, तब वो उसे फिर से वहाँ फंसा देता। पल्लू के उसने कई और उपयोग भी देखे जैसे हाथ धोने के बाद झट से अपने पल्लू से ही हाथ पोंछ लेना! साड़ी न हुई जैसे अपने आप मे कई गुणों को समेटे हुए ऑल इन वन वरदान हो गई थी।
और खाना खाने के बाद माँ बेटी ने सुधा की पसंद का सीरीअल भी देखा जहां आदतन संजु अपनी माँ के पसंद की हिरोइन की बुराई भी करता था अपनी माँ को छेड़ने के लिए। हँसते खेलते सोने का वक्त भी आ गया।
“अच्छा बेटा, अब देर हो रही है। अब जाकर नाइटी पहन लेना और सोने के पहले बालों का जुड़ा जरूर बना लेना।”
“माँ, आज तो मैं साड़ी ही पहनकर सोऊँगी!”, संजु को साड़ी का कुछ ज्यादा लगाव हो गया था।
“संजु, मेरी बात मान बेटा।”
“माँ, एक रात की ही तो बात है। आज नाइटी नहीं पहनूँगी तो कुछ बिगड़ जाएगा क्या? उस रात भी तो मैं साड़ी पहने पहने ही सो गई थी।”
सुधा अब ज्यादा बहस नहीं करना चाहती थी इसलिए वो मान ही गई, “ठीक है। पर कम से कम ब्रा उतारकर सोना। और याद से जुड़ा बना लेना। ठीक है न?”
“ठीक है, माँ। गुड नाइट”, और माँ से गले लगकर संजु खुशी के मारे अपने कमरे मे गया, और बाथरूम जाकर पहले तो उसने अपने बालों का जुड़ा बनाया और फिर ब्लॉउज़ पर लगी पिन को खोलकर उसने अपने पल्लू को अलग किया और फिर ब्लॉउज़ उतारकर उसने अपनी ब्रा उतारी।
ब्रा उतारते हुए उसकी नजर एक बार फिर अपने निप्पल पर गई। वो हर सुबह की तरह इस वक्त रात को कठोर तो नहीं थे, पर संजु इस बात को अनदेखा नहीं कर सकता था कि उसके निप्पल का आकार दिन ब दिन और बड़ा होता जा रहा था, और उनका रंग भी गहरा हो चला था। पर इस वक्त उन पर ज्यादा ध्यान न देते हुए उसने फिर से ब्लॉउज़ पहना और अपनी साड़ी के खुले पल्लू को अपने कंधे पर बिल्कुल अपनी माँ की तरह सजाया। वो खुद को इस तरह देख बहुत खुश था। और अब बस सोने जाने के लिए तैयार था।
रोते रोते उदासी मे साड़ी पहनकर सो जाना, जैसा कि कुछ दिन पहले संजु के साथ हुआ था, वो एक बात थी। पर जब मन मे इतना उत्साह हो साड़ी को लेकर, और दिल मे इतनी खुशी हो, तब साड़ी पहनकर सोना अलग बात है। वैसे भी जिन्होंने नई नई साड़ी पहनना शुरू की हो, उनके लिए साड़ी पहनकर सोना किसी मीठी सी मगर आफत से कम नहीं होता है। जब ऐसे किसी कपड़े की आदत ने हो जिसमे पीठ खुली रहती हो, और चुस्त ब्लॉउज़ की फिटिंग हो, तो ध्यान तो बार बार वहाँ जाता है। और फिर खुले पेट पर जब मखमली साड़ी फिसलती है और आप खुद अपने पेट को साड़ी के ऊपर से छूए तो जो गुदगुदी होती है वो तो आपको रात भर जगाए रखने के लिए काफी होती है। कम से कम संजु को अपनी नरम कोमल नाइटी पहनने की आदत थी तो उसे उस गुदगुदी से तो कोई परेशानी नहीं होगी। पर चुस्त ब्लॉउज़ पहनकर सोने की तो उसे आदत नहीं थी। इसके अलावा यदि आदत न हो तो कमर के नीचे की साड़ी तो और परेशान करती है। जब सोते हुए हम उलटते पलटते है, तब वो साड़ी और उसकी प्लीट परेशानी का सबब बन जाती है। इसलिए लड़का हो या लड़की, पहली पहली बार साड़ी पहनकर सोना उनके लिए आसान नहीं होता।
पर संजु जैसे किशोरावस्था की उम्र वालों के लिए एक और बात होती है जो उन्हे काफी देर तक जगा कर रख सकती है। साड़ी उन्हे उनके शरीर के एक एक हिस्से को छूकर उनके होने का एहसास कराती है। और इन नए शारीरिक बदलावों की तरफ ध्यान आकर्षित कराती है। रात के एकांत मे तो और भी।
संजु को ऋतु की कही हुई बात याद आ रही थी जब उसने संजु से पूछा था कि क्या संजु ने कभी अपने उरोजों को छूकर देखा है क्या। कैसे झुंझलाया गई थी वो जब संजु ने उस सवाल का मतलब उससे पूछा था। ऋतु ने उससे कहा था कि संजु को उन्हे यानि उरोजों को छूना भी नहीं चाहिए। ये सच है कि इस उम्र मे बदलाव आते है, पर संजु को लगता था न जाने क्यों लोग इतना खुद मे आए हुए बदलावों को छूने की बातें करते है। क्लास मे लड़के कभी कभी प्राइवेट मे बातें करते वक्त वहाँ कमर के नीचे छूने की बातें करते थे। कुछ लड़के तो उस बारे मे बड़ी डींगें भी मारा करते थे। संजु को तो वो सब करने के बारे मे सोचना ही बड़ा खराब लगता था। पर रोज़ सुबह सुबह उठने पर वहाँ का उभार उसके लिए एक परेशानी ही था कि यदि कभी किसी ने देख लिया तो क्या होगा। अब लड़के तो लड़के, ऋतु ने भी ऐसी ही कुछ बातें कही कि उनके क्लास की लड़कियां अब अपने सीने को छूती है? कोई अपने हाथ, पैर या सर को छूने की तो बातें नहीं करता, तो फिर सभी उन खास अंगों को छूने की बातें क्यों करते है? क्यों होता है ऐसा जो होता है उन्हे छूने पर?
आज दिन की बात वो कैसे भूल सकता था जब ऋतु ने उसके निप्पल को उंगलियों से मसलकर संजु को वहाँ पर चिकोटी कांटी थी। अचानक से हुए इस काम से संजु अपनी जगह पर उछल पड़ा था। उसे ऋतु पर गुस्सा तो आया था लेकिन साथ ही साथ उस मीठे से हुए दर्द का एहसास भी था उसे। “मीठा दर्द” शायद इसे ही कहते है जो दर्द होते हुए भी अच्छा लगता है। अपने रूप मे निखार के लिए जरूर संजु को अपने स्तन अच्छे लगते थे, पर जब वो सुबह सुबह उठता था, और उसके निप्पल कठोर हो कर उभर आते थे, तो उसे वह भी उतनी ही मुसीबत लगते थे जितना की कमर के नीचे की वह अंग। कम से कम सोते हुए तो उसे ये परेशानी नहीं होती थी। उस बात को पक्का करने के लिए बिस्तर मे लेटा हुआ संजु अपने हाथों को अपनी साड़ी पर फेरते हुए अपने सीने पर ले गया और फिर धीरे से साड़ी पर से ही अपने ब्लॉउज़ के अंदर के अपने निप्पलों को अपनी उंगलियों से महसूस करने लगा। उसने जैसा सोचा था, वैसा ही था। उसके निप्पल इस वक्त नरम से थे। वो मन ही मन संतुष्ट हुआ।
पर काश कि वो वहीं रुक जाता। पर उसके दिल मे दिन मे महसूस किये हुए उस मीठे से दर्द को एक बार फिर महसूस करने की तमन्ना बढ़ गई। उसके मुंह से उसकी निकली हुई “आउच” कितनी नजाकत भरी थी। और उसने वो किया जो शायद उसे नहीं करना चाहिए था। उसने अपनी उंगलियों से अपने निप्पल को ब्लॉउज़ के ऊपर से ही मसलना शुरू किया। और उसे दर्द भी महसूस हुआ, पर इस वक्त उसमे उतनी मीठास न थी जितना ऋतु के करने पर थी। पर हाय दइया, यह क्या हुआ? उसका निप्पल तुरंत कठोर होने लगा, और उसका असर जल्दी ही उसे नीचे अपनी कमर के नीचे भी महसूस होने लगा। उफ्फ़ ये कैसा मायावी शरीर है? हैरान संजु ने तुरंत अपने निप्पल पर से हाथ हटाकर करवट ले ली और अपने घुटनों को मोड़कर अपने सीने के बेहद करीब ले आया जैसे कि वो बस गोल होकर छोटी सी जगह मे समा जाना चाहता हो। शरीर को इस तरह मोड़ते हुए उसकी साड़ी उसके तन पर फिसलकर अपनी जगह बनाने लगी। और फिर उसने अपनी साड़ी को नीचे से खींचते हुए अपने पैरों को ढँक दिया और फिर अपने खुले हुए पल्लू को अपने चारों ओर लपेटकर उसमे समाकर आँखें बंद किये सोने की कोशिश करने लगा। “मैं दोबारा कभी ये नहीं करूंगी।”, उसने मन ही मन एक शर्मिंदगी के साथ सोचा।
उसकी यह सोच उसके लिए सही ही थी। उसकी उम्र अभी इन बातों के लिए कच्ची थी। हर चीज का एक समय होता है, और उसका समय अभी नहीं आया था। उसका कोमल शरीर तो अभी एक कच्चा घड़ा था जो अपना रूप ले ही रहा था। न जाने उसके शरीर ने क्या तय कर रखा था संजु के लिए? न जाने वो किस दिशा मे बढ़ने वाला था? जो भी था, संजु ने इस वक्त एक बात जान लिया था, उसकी कोमल साड़ी मे खुद को लपेटकर इस तरह गोल होकर उसमे समा कर संजु सुरक्षित महसूस कर रही थी। उसकी खुली पीठ और कमर भी अब उसकी साड़ी के पल्लू के अंदर छिपकर सुरक्षित थी। और उस साड़ी के कवच मे उस प्यारी सी लड़की को धीरे से गहरी नींद आ गई।
सुबह सुबह संजु की नींद जल्दी खुल गई। “चलो अच्छा हुआ, माँ के आने के पहले मेरी सुबह सुबह की प्रॉब्लम का निपटारा हो जाए तो अच्छा ही है”, संजु ने मन ही मन सोचा। और अपने पल्लू को कंधों पर चढ़ाकर अपनी नींद भरी आँखों के साथ अपने पैरों को बिस्तर से नीचे किया। अपनी साड़ी को सहेजकर अपने पैरों को ढँकते हुए वो उठ खड़ा हुआ और लगभग बंद सी आँखों के साथ ही बाथरूम की ओर बढ़ने लगा। हर सुबह की तरह आज भी वह प्रॉब्लम तो थी ही। उसकी कमर के नीचे से उभार की वजह से उसका पेटीकोट और साड़ी वहाँ से उठी हुई प्रतीत हो रही थी, मगर संजु ने उधर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। बाथरूम पहुंचते ही उसने सबसे पहले तो अपने बालों का जुड़ा खोला, और उन्हे एक बार फिर से जुड़े मे अच्छी तरह से बांध लिया। उसने कल ही अपने बाल शैम्पू किये थे तो आज उसे दोबारा अपने बालों को भीगाने की जरूरत न थी।
अब साड़ी उतारते वक्त थोड़ी उदासी जरूर उसे महसूस होने लगी। आखिर कितना प्यार संडे बीता था उसका, और अब फिर वही स्कूल, वही टाइट स्पोर्ट्स ब्रा। पर जब मन मे आत्म-विश्वास बढ़ जाता है तो उसका दैनिक जीवन पर भी असर होता है। संजु ने अपनी साड़ी उतारकर बाथरूम मे ही टांग दी, उसे वो अब नहाने के बाद तह कर देगा। मन साड़ी को छोड़ने को लेकर थोड़ा उदास जरूर था, पर कम से कम, स्कूल के बाद वो एक बार फिर खुला आजाद जीवन जी सकेगा। कुछ घंटों ही की तो बात थी स्कूल की। और वहाँ भी तो ऋतु उसके साथ है, फिर क्यों उदास होना। संजु ने खुद को समझाया और अपने बाकी कपड़े उतारकर नहाने चला गया।
नहाने के बाद सब तैयारी करके और अपनी माँ से टिफ़िन लेकर संजु स्कूल की ओर निकल गया, और रास्ते मे साइकिल चलाते हुए उसके साथ ऋतु भी थी। प्यार वयार तो दूसरी बात है, उन दोनों की दोस्ती उन दोनों के लिए सबसे ऊपर थी। दोनों हँसते खिलखिलाते झगड़ते बातें करते हुए स्कूल जा रहे थे। आज संजु अपनी साइकिल भी ऋतु के लिए धीरे धीरे चला रहा था। और देखते ही देखते स्कूल भी आ गया, जहां साइकिल खड़ी कर दोनों चलते हुए अपनी क्लास मे गए।
क्लास मे संजु के बेंच तक ऋतु उसके साथ ही आई और वहाँ पहुच कर बोली, “ये ले। ये तेरे लिए है।”
“क्या है ये?”, संजु ने पूछा।
“क्या है? चॉकलेट है और क्या?”
“चॉकलेट। मगर किसलिए?”
“इसलिए ताकि तू इसे अपने सामने रखकर इसकी पूजा कर सके। खाने के लिए है स्टूपिड, और क्या? तू भी न!”, ऋतु झूठ मूठ का गुस्सा करते हुए बोली।
“तू स्टूपिड है! मुझे दोबारा स्टूपिड बोली न तो तेरी चोटी खींच लूँगा!”, संजु ने भी ऋतु को झूठ मूठ का धमकाया। और ऋतु वहाँ से हँसते हुए उसकी ओर देखती हुई चली गई।
“संजु … संजु …”, ये अखिल था जो संजु के साथ ही बैठा करता था।
“क्या हुआ?”, संजु ने पूछा।
“भाई, मुझे लगता है कि ऋतु तुझसे प्यार करती है।”, अखिल सीधा लड़का था जो कम ही बोलता था और संजु की तरह ही खूब पढ़ना चाहता था। इसलिए वो संजु के साथ ही रहा करता था।
“हा हा ..”, संजु ने हंस कर बात टालने की कोशिश किया।
“भाई मुझे तो लगता है कि तुझे भी उससे प्यार है।”, अखिल ने बिना कोई भाव बनाए कहा। उसकी बात सुनकर संजु एकदम शर्मा गया और उस बात को नकारने की पूरी कोशिश करने लगा जैसा कि कोई भी लड़का करता।
“भाई, एक बात बता रहा हूँ तुझे। मेरी मम्मी कहती है कि हमारी ये उम्र पढ़ने लिखने की है। प्यार करने के लिए तो कॉलेज के बाद बहुत समय होगा। मम्मी कहती है कि अभी हमारा पूरा ध्यान बोर्ड इग्ज़ैम मे होना चाहिए। तू पढ़ने मे अच्छा है इसलिए तुझे कह रहा हूँ, भाई। मैं तो इसलिए लड़कियों की तरफ देखता भी नहीं। “, अखिल ने बिल्कुल एक दोस्त की तरह संजु को समझाना चाहा।
“तेरी मम्मी बिल्कुल सही कहती है, भाई।”, संजु ने भी अखिल को जवाब दिया। उसे भी अखिल की बात मे दम लग रहा था। आखिर उसकी माँ भी उसे यही समझाती थी कि उसके लिए अच्छी पढ़ाई करना किसी और के मुकाबले ज्यादा जरूरी है।
इसके बाद स्कूल मे कुछ ऐसा न हुआ जो कुछ खास हो। बस समय समय पर संजु ऋतु को देखकर खुश होता, और फिर खुद को समझाने की कोशिश करता कि प्यार करने को ज़िंदगी बाकी है, अभी सिर्फ पढ़ाई।
और यूं ही स्कूल भी खत्म हुआ। संजु और ऋतु साइकिल चलाते हुए साथ मे घर आया। ऋतु संजु से यहाँ वहाँ की बातें करने लगती तो वो उससे पढ़ाई के बारे मे बातें करता रहता।
“तू कितना बोरिंग है यार! तुझे पढ़ाई के अलावा कुछ नहीं सूझता क्या?”, ऋतु ने गुस्से मे संजु से कहा।
“ऋतु, हमारी उम्र पढ़ाई करने की है। बाकी बातों के लिए तो ज़िंदगी बाकी है!”, संजु ने कहा।
स्कूल से घर का १५ मिनट का रास्ता ऋतु के साथ धीरे चलने की वजह से २५ मिनट का हो गया था। और ऋतु से विदा लेकर संजु अपने घर जाने लगा।
“मैं आऊँगी तेरे घर साथ मे पढ़ाई करने!”, ऋतु ने जोर से चिल्लाकर संजु से कहा जो कि झटपट अपने घर के अंदर जा रहा था। उसने तो पलटकर भी नहीं देखा ऋतु की ओर।
संजु यूं तो वैसे ही पढ़ने मे मेहनती लड़का था, मगर आज अखिल की बात का उस पर न जाने कितना असर पड़ गया कि वो पढ़ाई के बारे मे ही सोचने लगा। वैसे हर पढ़ाकू इंसान के लिए जनवरी का समय कुछ ऐसा ही होता है, अब परीक्षाओं के लिए ज्यादा समय नहीं बचा रहता है और उनमे पढ़ाई का बहुत सवार हो जाता है। जो इस ओर ध्यान नहीं देते, वो अंत मे संघर्ष करते है। संजु को वो सब पसंद नहीं था। वो अपनी परीक्षा के समय से काफी पहले तैयार रहने मे विश्वास रखता था।
घर पहुंचते ही उसने कपड़े बदले। घर मे सलवार कुर्ती के साथ अब दुपट्टा भी था। मगर उसने आज खुद को दुपट्टे के साथ खुद को निहारने मे कोई समय व्यर्थ नहीं किया। आज उसने याद से अपनी घर मे पहनने वाली ब्रा पहना था। “ऋतु को मैं आज वहाँ हाथ ही नहीं लगाने दूंगा।”, सलवार, दुपट्टे और ब्रा पहना हुआ संजु सोच तो लड़के की तरह ही रहा था।
और फिर दौड़े दौड़े सीढ़ियों से उतरकर वो नीचे किचन मे आया और माँ से कहा, “माँ जल्दी खाना दो। मुझे बहुत पढ़ाई करनी है।”
“हाँ, खाना लगा ही रही हूँ। कोई क्लास टेस्ट होना है क्या? जो तुझे इतनी जल्दी हो रही है?”, सुधा ने पूछा।
“नहीं, माँ। मैंने ये पूरा संडे बिना पढे बर्बाद कर दिया। मुझे तैयार रहना होगा न।”, संजु ने दुपट्टा संभालते हुए कहा।
“मम्मी तुम जैसे साड़ी मे पल्लू पर पिन लगाती हो, क्या तुम मेरे दुपट्टे को पिन कर सकती हो? ये पूरे दिन फिसलता ही रहता है। मैं नहीं चाहती कि पढ़ाई करते वक्त ये मुझे परेशान करे।”, संजु ने माँ से कहा।
“ठीक है, लगा दूँगी। पर तुझे इतनी परेशानी हो रही है तो बिना दुपट्टे के पढ़ाई कर लेना। वैसे भी तो तू कल तक बिना दुपट्टे के ही रहा करती थी।”, सुधा ने हैरत से पूछा।
“हाँ माँ … पर वो ऋतु है न, वो तो दुपट्टे के पीछे पड़ी रहती है। वो कभी भी घर आ जाएगी साथ मे पढ़ने के लिए .. और फिर मेरी जान खाएगी दुपट्टे के लिए।”, संजु ने कहा। और ये कहते ही उसे शर्मिंदगी महसूस हुई। आखिर अपनी माँ से कोई लड़का ये नहीं कहना चाहता कि किसी और लड़की के कुछ कहने से उस पर कितना फर्क पड़ता है। खासकर तब, जब सुधा खुद संजु को कई बार दुपट्टे के लिए पहले कह चुकी थी। पर माँ की तो उसने नहीं सुनी थी।
पर संजु के इन विचारों से बेखबर सुधा तो सिर्फ मुस्कुरा रही थी। उसके लिए तो ये बच्चों वाली नादानियाँ और शिकायतें थी।
संजु के साथ खाना खाने के बाद सुधा ने संजु का दुपट्टा लेकर उसे करीने से फोल्ड किया और संजु के कंधों पर V – शेप मे सजाकर उसके दोनों कंधों पर पिन लगा दी।
“लो हो गया पिन! और कुछ?”, सुधा ने संजु से पूछा। पिन किये हुए दुपट्टे के साथ संजु बड़ा खुश था। और फिर माँ से उसने कहा, “बस के बात और माँ। ये ऋतु है न? वो साथ मे पढ़ने के लिए तो आ रही है, पर वो इधर उधर की बातें भी बहुत करती है। तुम समय समय पर आकर देखती रहना कि वो मेरा समय तो व्यर्थ नहीं कर रही।”
संजु की बातें सुनकर सुधा अंदर ही अंदर मुस्कुराने से खुद को रोक न सकी। बड़ा ही निराला बेटा था उसका।
“ठीक है, उसके आते ही मैं उसे बोल दूँगी कि सिर्फ पढ़ाई और कुछ नहीं।”, सुधा ने कहा, “और सुन, एक बार पलट तो सही।”
और सुधा ने संजु के दुपट्टे के दोनों छोर को पीछे क्रॉस करके बांध दिया। “अब ये बिल्कुल बीच मे नहीं आएगा। चल जा अब पढ़ाई कर।”
और संजु बिना कोई समय बर्बाद किये ऊपर अपने कमरे की ओर चला गया। ये दुपट्टे को पीछे बांधने की तरकीब तो बड़े काम की है, उसने मन ही मन सोचा। और फिर अपनी पढ़ाई मे मगन हो गया।
शायद संजु को पढ़ते हुए १ घंटे से थोड़ा ज्यादा समय बीता होगा तभी उसे नीचे से उसकी मम्मी की आवाज सुनाई दी।
“आ रही हूँ, माँ”, संजु ने भी आवाज दी और उठकर नीचे जाने लगा।
“मैं आ गई, माँ। बोलो क्या हुआ?”, उसने अपनी माँ के ओर देखा तो उसे साथ मे ऋतु भी दिखाई दी जो संजु को देखकर खिलखिला रही थी। संजु तो ऋतु को देखकर तुरंत झेंप गया और बोला, “मैं आ गया माँ!” संजु ने ऋतु के सामने अपनी भाषा को एक लड़के के अनुरूप तुरंत सुधारा। चाहे जो भी कपड़े उसने पहने हो, वो ऋतु के सामने लड़की की तरह रहने को तैयार नहीं था।
“बेटा। ऋतु पढ़ने के लिए आई है। ध्यान रखना कि तुम दोनों सिर्फ पढ़ाई करोगे। कोई शैतानी नहीं! और कोई गप्पे नहीं। सिर्फ पढ़ाई, समझे तुम दोनों?”, सुधा ने थोड़ी स्ट्रिक्ट आवाज मे कहा जिससे कि ऋतु को भी लगे कि ये बात सीरीअस है।
“मैं समय समय पर आकर देखती रहूँगी कि तुम दोनों पढ़ाई कर रहे हो। ठीक है न?”, सुधा ने दोनों बच्चों के सामने कहा।
“जी आंटी।”, ऋतु बोली। “हाँ, मम्मी”, संजु बोला।
और दोनों चलकर संजु के कमरे की ओर जाने लगे। ऋतु तो सच मे सुधा की बात से डर गई थी। उसे क्या पता था कि ये सब संजु का किया धरा है।
“यार, तेरी मम्मी कितनी स्ट्रिक्ट है! मेरी मम्मी तो बस पढ़ने को कहती रहती है पर मैं उनकी सुनती ही नहीं”, ऋतु ने फुसफुसाते हुए संजु से कहा।
“ऋतु, हमारी पढ़ने की उम्र है।”, संजु ने जैसे ऋतु के जले पे नमक छिड़कते हुए हँसते हुए कहा।
कमरे मे टेबल पर दो कुर्सियाँ लगाकर अपनी अपनी किताबें निकालकर दोनों केमिस्ट्री पढ़ने लगे। कम से कम संजु तो मन लगा कर पढ़ रहा था। पर ऋतु की नजर संजु पर जा रही थी।
“संजु”, ऋतु ने कहा। पर संजु ने अनसुना कर दिया।
“संजु सुन न “, ऋतु फिर बोली।
“क्या हुआ?”, संजु ने आखिर आँखें उठाकर कहा।
“तू न बिल्कुल आंटियों की तरह सलवार सूट पहनता है। एक तो ढीली ढाली कुर्ती और फिर ऐसे पिन करके घर मे कौन दुपट्टा पहनता है?”
“तू पढ़ने आई है या मेरा सलवार और दुपट्टा देखने?”
“अब मेरे पास आँखें है और तेरी कुर्ती दुपट्टा दिख रहे है तो मैं क्या करूँ?”
“आँखें है तो उनको अपनी किताब की ओर घूमा। फिर तुझे मेरा दुपट्टा नहीं दिखेगा।”, संजु वापस अपनी पढ़ाई मे लग गया।
संजु के कहने पर ऋतु अपनी किताब पर ध्यान लगाने लगी पर उसका पढ़ने मे मन ही नहीं लग रहा था। और थोड़ी देर बाद उसने फिर संजु की ओर देखा और बोली, “तुझे न एक बार स्कर्ट पहनकर देखना चाहिए।”
“तुझे मेरे कपड़ों की क्यों पड़ी है? तू क्यों नहीं पहनती स्कर्ट?”, संजु ने ऋतु की ओर बिना देखे ही कहा।
“पहनती तो हूँ। रोज ही पहनती हूँ। पर मम्मी अब मुझे घर से बाहर स्कर्ट मे निकालने नहीं देती।”
“ठीक ही तो है। तू बड़ी हो गई है।”, संजु कुछ लिखते हुए बोला।
“अब तू भी मेरी मम्मी जैसे बात मत कर। मैं न, तेरे लिए अपना एक स्कर्ट लेकर आऊँगी। तू पहनकर देखना, तुझे बड़ा अच्छा लगेगा।”, ऋतु बड़ी खुश होती हुई बोली जैसे न जाने कितना अच्छा आइडिया उसके दिमाग मे आया हो।
संजु ने ऋतु की ओर घूरकर देखा और बोला, “मैं नहीं पहनूँगा स्कर्ट। तू समझ ले इस बात को कि अभी हम पढ़ाई कर रहे है।”
“यार, तू एक बार ट्राई तो करना!”, ऋतु संजु का हाथ पकड़कर बोली।
मगर संजु ने अपना हाथ छुड़ा लिया। और फिर अपनी पढ़ाई मे मगन हो गया। उदास होकर ऋतु भी पढ़ने की कोशिश करने लगी। बीच बीच मे जब भी वो संजु से कुछ कहती वो उसे या तो चुप करा देता या अनसुना कर देता। और कभी कुछ कहता भी तो सिर्फ पढ़ाई के बारे मे बात करता। दोनों मिलकर कोई केमिस्ट्री की प्रॉब्लम सॉल्व करते और फिर संजु अपनी दुनिया मे मगन हो जाता। ऋतु चाहे न चाहे कुछ तो संजु से सिख रही थी। पर फिर भी मुंह फुलाये वो बस उस कमरे मे लगी हुई घड़ी की ओर देखती रहती।
जब करीब २ घंटे बीत गए तो वो बोली, “यार इतनी पढ़ाई तो मैं हफ्ते मे नहीं करती जितनी तू एक दिन मे कर रहा है।”
“हाँ, तेरे नंबरों से पता चलता है।”, संजु ने लगभग ताना मारते हुए कहा।
“संजु! बहुत होशियार समझता है न तू खुद को?”
“अब हूँ तो समझता भी हूँ।”, संजु का तो सही मे पढ़ाई मे मन लगा हुआ था। मगर ये तो घमंड था। कोई इस तरह से बातें करता है भला। बेचारी ऋतु तो बड़े प्यार से संजु के साथ समय बीताने आई थी। मगर संजु को पढ़ना था, ये बात भी सही थी। अंत मे कंझाती हुई ऋतु अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
“ठीक है। पढ़ ले तू मिस्टर पढ़ाकू। बहुत बोरिंग है तू। तुझसे अच्छा तो मैं आंटी के साथ ही जाकर बातें कर लेती हूँ।”, ऋतु ने गुस्से से कहा।
“तो जा ना। किसने मना किया है?”, संजु ने बेरुखी से कहा।
और अपनी किताबें लेकर ऋतु वहाँ से उठ चली गई। ऐसा नहीं है कि संजु को ऋतु के साथ समय बीताने की इच्छा न थी, पर इस वक्त वाकई मे पढ़ाई का बहुत उस पर सवार था।
संजु को इस वक्त नीचे से ऋतु और उसकी माँ के बीच हो रही बातों की कुछ आवाज आ रही थी। उसे समझ तो नहीं आ रहा था कि क्या बातें हो रही थी, पर दोनों बड़ी उत्साहित मालूम हो रही थी। और बीच बीच मे थोड़ी हँसने की आवाज भी आती। पर उन सबको अनदेखा कर वो अपनी पढ़ाई मे ध्यान लगाने की कोशिश करता रहा।
संजु को ये न पता था कि नीचे ऋतु और सुधा मिलकर संजु के लिए शॉपिंग का प्लान बना रहे थे। और ये शॉपिंग न जाने संजु के जीवन पर कैसा प्रभाव डालने वाली थी।
तो ये था इस कहानी मे मेरा एक छोटा सा योगदान। आशा करती हूँ कि श्रुति की इस कहानी की दिशा को मैंने कहीं से बदला न हो और आप सभी को ये पसंद आया हो। यदि आप इस भाग को लेकर मेरी और श्रुति के बीच हुई बातचीत और प्रक्रिया के बारे मे जानना चाहते है तो यहाँ क्लिक कीजिए! – अनुपमा त्रिवेदी
क्रमश
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