संजु (15)

 ये कहानी है संजु के रिश्तों की. एक तरफ तो उसकी प्यारी माँ है जो न जाने क्यों संजु को लड़कियों की तरह रहने को प्रेरित करती है, और दूसरी ओर है ऋतु, जिससे संजु को प्यार है.

भाग १५: दिल ही दिल में


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आज का दिन

“संजना मैडम, डॉ रुचिता आपसे मिलने के लिए अब तैयार है।”, रीसेप्शनिस्ट ने आकर संजु से कहा जिसकी आँखें अब भी नम थी।

संजु को देखते ही डॉ रुचिता खुशी से बोल पड़ी, “वाह! संजु, आज साड़ी में! बहुत सुंदर लग रही हो। पहली बार तुमको साड़ी पहने देख रही हूँ। और ये क्या? आज ये आँसू कैसे?”

इतना बड़ा दर्द आँखों में छिपाए सहमी सी संजु का इस समय अपनी खूबसूरती और तारीफ में कहाँ मन लगना था। वो तो सहमी हुई सी बस अपने बिखरे पल्लू की परवाह किया बगैर डॉ के सामने आकर बैठ गई।

“संजु, तुमको याद है तुम यहाँ पहली बार कब आई थी?”

संजु ने बस धीमे से सर हिलाया।

“तुम्हारा इस शहर के बड़े कॉलेज में अड्मिशन हुआ था तब तुम आई थी। ४ साल पढ़ाई के बाद तुमने दो साल यहाँ अब जॉब भी की है। तुम मुझसे हर २ महीने में मिलती भी हो। पर इन ६ सालों में पहले कभी तुम्हें उदास या रोते हुए नहीं देखा। बात क्या है बेटा?”, डॉ रुचिता ने पूछा।

संजु ने कुछ कहने की कोशिश की तो जैसे उसकी आवाज लड़खड़ा उठी और उसके आँखों से एक बार फिर आँसू बह निकले। जब वो अपनी बात कह न सकी तो उसने अपने फोन में एक मैसेज खोलकर डॉ की ओर बढ़ा कर रोने लगी।

डॉ रुचिता ने जैसे ही वो मैसेज देखा उन्होंने घंटी बजाकर तुरंत रीसेप्शनिस्ट को बुलाया।

“मेरे आज के दोपहर तक के सारे अपॉइन्ट्मन्ट कैन्सल कर दो। मुझे आज इस बात को किसी भी हाल में सुलझाना है।”, डॉ बोली और एक बार फिर वो मैसेज पढ़ने लगी।

“संजु, कब से तुझे फोन लगा रही हूँ यार। हाँ आज तो तेरे ऑफिस का प्रोग्राम है। तुझे आज अवॉर्ड के लिए बहुत बधाई। मेरी बेस्ट फ्रेंड ऐसे ही तरक्की करती रहे। देखना तुझे प्रमोशन मिलकर ही रहेगा। तुझे एक और खुशी की न्यूज देनी थी। मेरी शादी पक्की हो गई है संजु!! मैंने तो मम्मी पापा से कह दिया है कि शॉपिंग तो मैं संजु के साथ ही करूंगी। आखिर सिर्फ दुल्हन की शॉपिंग थोड़ी करनी है, उसकी सबसे अच्छी सहेली की शॉपिंग भी तो करनी है। इसलिए मैं छुट्टी लेकर ३-४ दिनों के लिए कल दोपहर ४ बजे तक ट्रेन से तेरे घर पहुँच जाऊँगी। तू भी कल जल्दी छुट्टी लेकर घर आ जाना।”

ये मैसेज ऋतु का था।

“हम्म तो आखिर वो दिन आ ही गया। लग ही रहा था मुझे कि ये आज या कल में होने ही वाला है। बेटा, तुमने मुझे न जाने कबसे ऋतु के बारे में बताया था। हर बार तुम उसके बारे में बातें करते हो। पर क्या अपने दिल की बात तुमने कभी ऋतु से कही थी?”, डॉ ने पूछा।

“कई बार।”, संजु ने जैसे गुस्से से कहा।

“इतनी जल्दी नहीं बेटा। थोड़ा सोच कर बताओ। आखिरी बार कब तुमने ऋतु से ये बात कही थी? कोई लड़की ऐसे ही इतना बड़ा निर्णय नहीं लेती है।”, डॉ ने फिर भी प्यार से संजु से पूछा।

हाँ, इस बात को समय तो हो चुका था। और वो समय संजु की आँखों के सामने ऐसे घूमने लगा जैसे कल ही की बात हो।

कॉलेज के सेकंड ईयर के बाद की छुट्टियों में संजु घर गया था। नए शहर के तौर तरीके सीखता हुआ संजु इस बार जब घर पहुंचा था तो जैसे एक नए रूप में था। उस समय उसके पापा भी घर पर ही थे और संजु को लेने रेल्वे स्टेशन आए थे।

जब तक संजु स्कूल में था, वो सलवार कुर्ती पहनता था और चुन्नी हमेशा उसके सीने को ढँकी हुआ करती थी। बाल हमेशा एक लंबी सी चोटी में सजे होते थे। पर अब जब संजु लौटा था तो कुर्ती और लेगीन्ग थी, चुन्नी गायब थी और बाल खुले हुए। यहाँ तक की बालों को उसने हाइलाइट भी कर रखा था। संजु मॉडर्न हो चला था।

घर पहुंचते ही अपनी माँ से गले लगा ही था कि ऋतु भी दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गई थी जैसे न जाने कब से इंतज़ार कर रही हो।

“अंकल आंटी … संजु आ गया?”, घर के अंदर पहुंचते ही हांफते हुए ऋतु ने पूछा। उसकी नजरे तेजी से संजु को ढूंढ रही थी।

“हाँ, मैं आ गई!”, संजु भी तो ऋतु से मिलने को बेताब था। और संजु भी ऋतु से मिलने को दौड़ पड़ा। मम्मी पापा के सामने उसे ऋतु को गले लगाने में थोड़ी झिझक थी इसलिए उसने ऋतु के दोनों हाथ पकड़ लिए। पर यदि वो गले लगा भी लेता तो उन्हे कोई कुछ थोड़ी कहता। दोनों आखिर सहेलियों की भांति प्रतीत होती थी।

“मेरे लिए कुछ गिफ्ट लेकर आया है या नहीं?”, ऋतु ने उसे देखते ही पूछा।

“अरे तेरे लिए तो मैं बहुत कुछ लेकर आई हूँ। चल कमरे में चल दिखाती हूँ तुझे।”, संजु ने कहा। असल में ये दोनों का पहले से सोचा हुआ तरीका था एकांत पाने का। और दोनों संजु का सामान लेकर ऊपर संजु के कमरे की ओर चल पड़े। ऋतु जब संजु से अकेले में बात करती या फिर उसके मम्मी पापा के सामने तो वो उसे लड़के के रूप में ही संबोधित करती थी मानो जैसे खुद को याद दिलाने के लिए कि ये वही संजु है उसके बचपन का दोस्त। घर के बाहर बात अलग थी। संजु भी उसे लड़के की तरह ही जवाब देता था चाहे वो कितनी ही खूबसूरत लड़की लगे। लेकिन अब पूरे समय वो लड़की की तरह रहने लगा था तो उससे स्वाभाविक रूप से लड़की की तरह ही आवाज निकलने लगी थी और लड़के की तरह जवाब देने में उसे खुद को थोड़ा समय लगता था।

कमरे में एकांत मिलते ही दोनों एक दूसरे से गले लग गई। भले ये सच है कि ऋतु और संजु एक दूसरे को चाहते थे पर उनमे पहला रिश्ता दोस्ती का था और यही इस गले मिलने में भी था। संजु ने ऋतु का हाथ पकड़ अपने बिस्तर पर बैठाया और फिर ऋतु की चुन्नी पकड़ नजरे झुकाकर उससे कहा, “ऋतु तू बहुत सुंदर लग रही है।” आखिर ऋतु भी अब पूरी तरह से जवान हो चली थी।

“तू भी तो हॉट और मॉडर्न हो गया है। पहले तो मैं तुझे एक स्कर्ट पहनने के लिए इतना मनाती थी पर तू मानता नही था और अब देखो तुम्हें …”, ऋतु ने चुलबुली हंसी के साथ कहा।

संजु मे शहर में रहते रहते शायद वहाँ की चकाचौंध का असर पड़ गया था या फिर आस पास के लोगों के बीच घुलने मिलने का दबाव। वैसे जगह के अनुरूप सभी को बदलना पड़ता है। शहर में यदि वो अपनी पारंपरिक तरह की कुर्ती सलवार चुन्नी पहनता तो भीड़ में सबसे अलग दिखता। वैसे भी तो संजु सब से अलग था और वो बेवजह अपनी ओर ध्यान आकर्षण नहीं कराना चाहता था इसलिए शायद उसने खुद के रूप को इस तरह ढाल लिया था।

“अरे वो छोड़ न यार। देख मैं तेरे लिए क्या लाई हूँ।”, संजु ने कहा और अपनी सूट्केस खोलकर कुछ ढूँढने लगा। अभी भी वो अपनी लड़की वाली भूमिका से बाहर नहीं निकल पा रहा था तभी ऋतु से लड़कियों की तरह ही बात कर रहा था। ऋतु ने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर जैसे कुछ ही समय पहले की तो बात थी जब संजु ऋतु के सामने किसी लड़की की तरह बात करने को लेकर कितना भावुक हो गया था।

“देख ये क्लच कैसा है? तू किसी पार्टी में जाएगी न तो तेरे काम आएगा।”, संजु ने ऋतु के हाथ में एक गोल्डन क्लच (यानि एक छोटा सा पर्स) देते हुए कहा। उसे देखकर तो जैसे ऋतु की आँखें चमक उठी।

“थैंक यू संजु! मुझे इसकी सच में बहुत जरूरत थी। खैर वो सब मैं बाद में बताऊँगी …” और फिर ऋतु संजु की सूटकेस से संजु की २-३ ब्रा निकालती हुई बोली, “ओहो तेरी ब्रा का कलेक्शन तो और भी सेक्सी हो चला है। ये पुशअप ब्रा है न?” ऋतु ने ब्रा की पैडिंग को छूकर कहा।

“हाँ, आखिर लड़कियों को बूब्स बड़े ही दिखाने होते है न।”, संजु मसखरी करता हुआ हँसने लगा। पर ऋतु को उसकी ये बात अच्छी नहीं लगी।

“छी! कैसी बातें करने लगा है तू? शहर जाकर बदल गया है।”, ऋतु बोली।

“ओहो ऋतु … तू बड़े शहर में होती न तो तू भी यही करती। यार वहाँ सभी लड़कियां यही सब पहनती है इसलिए मुझे भी लेना पड़ा। लेकिन अब यहाँ आ गया हूँ तो अब मुझे इनकी जरूरत नहीं है।”, संजु आखिर में अपनी बोलने की शैली को बदलने में कामयाब हो गया।

संजु को ऋतु की सादगी बहुत भाति थी। पर ऐसा नहीं था कि ऋतु को अलग अलग तरह के कपड़ों का शौक न था। उसका भी दिल करता था मॉडर्न कपड़े पहनने का। लेकिन बड़ी होते हुए और अब जब वो कॉलेज जाने लगी थी उसे सादगी और शालीनता का महत्व समझ आने लगा था। कितना अच्छा होता कि यदि लोग किसी लड़की को उसके कपड़ों के आधार पर जज न करते, लेकिन दुनिया तो वैसी ही थी। किसी लड़की ने थोड़े छोटे कपड़े पहने नहीं कि कॉलेज के सारे लड़के उसके पीछे हो लेते। शायद इसलिए ऋतु को शालीनता अब ज्यादा भाने लगी थी पर यदि वो संजु के साथ हो तो वो मॉडर्न कपड़े भी पहनने को तैयार थी। तभी तो उसने इतनी खुशी से संजु के सारे नए स्टाइल के कपड़े खोल खोलकर देखे। भले इस छोटे से शहर में वो इन कपड़ों को खुद नहीं पहन सकती थी, लेकिन संजु के कपड़ों को देख बड़ी खुश थी वो। संजु उससे साइज़ में बड़ा था वरना वो उसके सारे कपड़े खुद पहनकर ट्राई करती।

वहीं एक बात ये भी थी कि संजु अब पूरी तरह से फैशन की दुनिया में डूबा भी नहीं था। चाहे उसका उस पर कितना भी असर हुआ हो लेकिन अब भी वो पढ़ाकू ही था। अपने कॉलेज में भी वो ज्यादा समय लाइब्रेरी में बीताता था लेकिन आसपास की लड़कियों के प्रभाव में उसकी जीवनशैली में बदलाव आ गया था। बोलने का तरीका आदि जैसे बड़े शहर की लड़कियों की तरह हो चला था।

“संजु, सुन यहाँ परसों न हमारी स्कूल की सीनियर अंजू दीदी की शादी है। मैं तो जा रही हूँ। और तेरे घर में भी इन्विटैशन आया है। तू चलेगा मेरे साथ?”, ऋतु ने संजु से पूछा।

“तेरे साथ तो कहीं भी जाने को तैयार हूँ मैं। अच्छा तू क्या पहनेगी शादी में?”, संजु की बात में एक लड़के और एक लड़की दोनों की ही भावनाएँ समाहित थी।

“लहंगा चोली! सुन तेरे पास भी कोई लहंगा चोली है क्या?”, ऋतु ने उत्साह से पूछा।

“नहीं यार। उसकी कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। मेरे पास एक अनारकली स्टाइल का सूट है जो शादी जैसे फ़ंक्शन के लिए ठीक होगा।”, संजु ने निराशा से कहा।

“नहीं यार सूट वगेरह तो हमेशा ही पहनते है हम लोग। तू साड़ी क्यों नहीं पहन लेता? आंटी के पास तो इतनी साड़ियाँ है … एक पसंद कर लेना।”, ऋतु बोली।

“साड़ी? पागल हो गई है क्या? इतने घंटे साड़ी कौन संभालेगा?”, संजु ने कहा।

ऋतु को तो जैसे संजु की बात सुनकर यकीन ही नहीं हुआ। “मैं बोल रही थी न कि तू बदल गया है। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि तू साड़ी के लिए मना कर रहा है! भूल गया कि स्कूल से घर आने के बाद तू कितनी बार साड़ी पहना करता था। अब वो तेरे लिए मुसीबत हो गई है?”, ऋतु ने रूठते हुए कहा।

संजु को भी जैसे अपनी भूल का एहसास हुआ और फिर उसने अपनी रूठी हुई ऋतु को मनाने के लिए उसकी बात मान ली।

इसके बाद दोनों काफी देर तक बात करते रहे जब तक संजु की मम्मी सुधा ने उसे खाने के लिए आवाज न दी। ऋतु को भी कॉलेज जाना था तो उसने शाम को संजु से मिलने का वादा कर वो भी चली गई। सुधा ने फिर आवाज लगाई तो संजु ने माँ से कहा, “आ रही हूँ माँ। बस कपड़े बदल लेती हूँ।”

अपने कमरे में खुद को अकेला पाकर जैसे संजु अपने पूराने समय में खो गया था। यही तो वो आईना था जिसके सामने उसने खुद को देखकर न जाने कितना ही संघर्ष किया था। आज जो लड़की उस आईने में दिख रही थी उसके पहले वहाँ एक लड़का दिखता था जो स्कूल से आकर अपनी स्पोर्ट्स ब्रा उतारकर फिर से आजाद महसूस होने की कोशिश करता था। यही तो वो आईना था जिसमे उसने खुद को पहली बार साड़ी पहने भी देखा था। यकायक जैसे उस समय का दर्द उसकी आँखों के सामने आ गया था और इस आईने में उसे वही लड़का दिख रहा था जो अपने बढ़ते स्तनों को छिपाने के लिए स्पोर्ट्स ब्रा में संघर्ष करता था। संजु के हाथ जैसे उस लड़के की ओर बढ़ चले थे मानो उससे कहना चाहते थे “संजु घबरा मत। देख हम अब कितने आगे आ चुके है। सब ठीक हो गया है। मुझे देख संजु। मैं वही हूँ।”

संघर्ष तब स्तनों को छिपाने का था पर अब संघर्ष कुछ बदल गया था। संजु ने धीरे से अपनी कुर्ती उठाई और अपनी सलवार से होते हुए अपनी पेंटी में हाथ डालते हुए उसने अंदर से एक सैनिटेरी पैड बाहर निकाला। अब ये संघर्ष संजु के अंदर छिपी लड़के होने की इस आखिरी निशानी को छिपाने का होता था। पर कम से कम अपने घर की चार दीवारी में संजु सुरक्षित था। यहाँ इसे कुछ छिपाने की जरूरत न थी। उस पैड को एक ओर रख जैसे उसे राहत महसूस हुई। संजु ने फिर अपनी अलमारी से एक सलवार कुर्ती निकाली जो उसे बहुत पसंद थी। उसे पहनकर जब संजु ने अपने कंधे पर दुपट्टा डालकर खुद को एक बार फिर आईने में देखा तो उसके मन में वो मीठी यादें भी आ गई जब वो अपनी मम्मी के साथ समय बीताने को लेकर थी। अपना दुपट्टा संवारना तो कभी उसे पीछे बांधकर माँ के साथ किचन में काम करना। ये सुखद अनुभव भी तो थे उसके घर के। और ये सारे अनुभव उसके कॉलेज के अनुभव से कहीं अधिक प्यारे थे क्योंकि कॉलेज में तो उसने एक मुखौटा बस पहना हुआ था, अपने घर में वो अपने वास्तविक रूप में था। यहाँ ये सलवार और खूबसूरत सा दुपट्टा भी एक लड़की बनने का ढोंग न होकर बस असली संजु होने का एहसास था।

उस पल में शहर वाली संजु जैसे उसी जगह छूट गई थी और फिर हमारा प्यार संजु वापस आ गया था। अपने बालों की चोटी बनाकर संजु नीचे आया जहां उसने अपने मम्मी-पापा से जी भर कर बातें की, उनको अपनी पढ़ाई के बारे में बताया। खाने के बाद संजु ने पहले की ही तरह सुधा के साथ सब बर्तन समेटने और धोने का काम किया।

और इसके बाद बारी थी माँ के साथ माँ की अलमारी से साड़ियाँ निकाल कर देखने की। आखिर परसों उसे ऋतु के साथ शादी में जाना था। जैसे कुछ समय पहले की ही बात थी जब सुधा ने संजु से कहा था कि वो कुछ साड़ियाँ पसंद कर ले पर तब जो लड़का था उसने शरमाते हुए किसी तरह कुछ सादी सी साड़ियाँ चुना था। पर आज वही संजु चहकते हुए सारी साड़ियों को खोलखोलकर अपने सीने पर लगाकर अपनी बाँहों में फैलाकर देखता और अपनी माँ से उसकी हर बारीकी के बारे में बातें करता। उसे यह सब करते हुए अच्छा लग रहा था। उसे इस समय ये नहीं लग रहा था कि वो लड़की है या लड़का है। वो तो बस अपनी माँ की संतान था जो अपनी माँ के साथ एक खास साड़ी चुन रहा था जिसमे वो अच्छा लगे। ऋतु के साथ अच्छा दिखने की उसकी इच्छा थी। अब क्या फर्क पड़ता है कि वो शेरवानी पहन कर अच्छा दिखता हो या फिर साड़ी पहनकर? उसे तो बस ऋतु को खुश करना है।

अंत में संजु ने माँ की एक मरून रंग की सिल्क साड़ी पसंद किया जिसकी सुनहरी बॉर्डर और डिजाइन थी। सुधा ने उसे समझाया कि उसकी उम्र के लिए ये थोड़ी ओल्ड फैशन साड़ी है। पर जब खुद में अपनी खूबसूरत माँ की छवि दिखने लगे तो वो चीज कभी ओल्ड फैशन नहीं लग सकती। उसने फिर माँ के सामने ही ब्लॉउज़ पहन कर देखा और माँ ने उसमे कुछ नाप लिए ताकि वो ब्लॉउज़ को समय पर तैयार कर सके।

ऋतु जब शाम को वापस आई तो एक बार फिर अपने संजु को वापस पाकर बड़ी खुश हुई। दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। बीच बीच में संजु पर का शहरी प्रभाव उसकी बातों में झलकता था पर वो दोनों उससे आगे बढ़ चुके थे। दोनों की आँखों में एक दूसरे के लिए प्यार था पर न जाने क्यों दोनों अब एक दूसरे से ये बात कहते नहीं थे। शायद कहने की जरूरत भी नहीं थी जब दोनों इस बात को महसूस कर सकते थे।

और देखते ही देखते शादी में जाने वाला दिन आ गया। संजु इस समय तैयार हो ही रहा था कि तभी ऋतु उसके कमरे में आ गई। लहंगा चोली और खूबसूरत से गुलाबी दुपट्टे, मेकअप, बिंदिया और चूड़ियों से सजी खिलखिलाती ऋतु को देखते ही जैसे संजु अपनी ऋतु की खूबसूरती में खो गया। वो ऋतु की तारीफ करता उसके पहले ही ऋतु उससे बोल पड़ी, “ये क्या? तू अब तक तैयार नहीं हुआ? और ये साड़ी …?”

संजु के बाल इस समय खुले हुए थे और साड़ी थोड़ी बेतरतीब तरीके से लिपटी हुई थी। उसने अपनी साड़ी को दाहिने कंधे पर पीछे से सामने की ओर लाते हुए रखा था। उसका पूरा ब्लॉउज़ साफ दिख रहा था और शायद वो इस समय अपना मेकअप ही पूरा कर रहा था। पर उसे मसखरी सूझी और उसने कहा, “क्यों क्या खराबी है साड़ी में? बस थोड़ा पल्लू ठीक करना है। बड़े शहरों में तो साड़ी ऐसे पहनने का फैशन है।”

“छि संजु। ये अपने बूब्स दिखाने का फैशन वहाँ होगा। यहाँ पहनना है तो सही तरीके से पहन।”, ऋतु गुस्से में बोली। संजु को ऋतु को गुस्सा दिलाने में मज़ा आता था।

“ऋतु , मज़ाक कर रहा हूँ यार। अभी प्लीट बनाकर पिन करना है। तू आ गई है तो मदद कर दे न यार। अभी तो नेल पोलिश भी नहीं लगी है और समझ नहीं आ रहा कि हेयर स्टाइल कैसी करनी है।”, संजु ने कहा तो ऋतु मुस्कुरा दी।

“आखिर तुझे भी वो बीमारी लग गई जो सब लड़कियों को होती है कि कैसी हेयर स्टाइल करे? कैसा मेकअप करे? चल मैं पहले तो नेल पोलिश लगाती हूँ तेरे पैरों पर। तू तब तक साड़ी बांध ले।”, ऋतु ने कहा।

संजु तो वैसे ही साड़ी पहनने में एक्सपर्ट था। उसे साड़ी को प्लेट करने में ज्यादा समय न लगा। ये काफी महंगी सिल्क की साड़ी थी। जिसको छूने में ही एक अलग अनुभूति थी। जब संजु ने प्लेट कर कंधे पर पल्लू को डाल कर उसे अपने घुटनों तक नाप लिया तब ऋतु ने उसकी साड़ी को ब्लॉउज़ पर पीछे से सैफ्टी पिन लगाने में मदद की। और फिर झुक कर उसकी कमर के नीचे की चुन्नटों को भी संवारा।

कैसा लग रहा था तब ऋतु को उस व्यक्ति को इस तरह सजाते हुए, नेल पोलिश लगाते हुए जिससे वो इतना प्यार करती थी? जिस तरह एक गर्लफ्रेंड या एक पत्नी अपने बॉयफ्रेंड या पति को टाई पहनने या फिर कोट पहनने में मदद करती है, देखती है कि उसका जीवन साथी अच्छा दिख रहा है या नहीं। ऋतु भी बिल्कुल उसी तरह से संजु की मदद कर रही थी। बस इतना ही तो फर्क था कि वो संजु को टाई और कोट की जगह साड़ी पहनने में मदद कर रही थी। पर उसके लिए बात वही थी इसलिए तो वो पूरी तल्लीनता से संजु की हेयर स्टाइल करने में मगन थी।

ये सच है कि संजु इस समय बहुत खूबसूरत लग रहा था अपनी साड़ी में पर उसकी खुद की नजर सिर्फ और सिर्फ ऋतु पर थी। खुद पर समय उसने सिर्फ इसलिए लगाया था ताकि वो ऋतु के लिए अच्छा दिख सके। दोनों ही इस समय बेहद खूबसूरत लग रहे थे। पर आज तो संजु की नजर ऋतु पर ही रहने वाली थी। और आज वो इस बात के लिए इतना उत्साहित भी था। लहंगा चोली में उसने ऋतु को पहली बार देखा था और उसे तो वो राजकुमारी लग रही थी।

साड़ी के मुकाबले बड़े से घेर वाले लहंगे और कंधे पर फैले हुए दुपट्टे को संभालना ज्यादा बड़ा काम था। इसलिए संजु ने खास ध्यान रखा था कि वो साड़ी को इस तरह पहने की उसे संभालने में उसका ध्यान न रहे। आज तो वो बस ऋतु की मदद करने वाला था। सीधी से उतरते चढ़ते, कार में बैठते हुए, या फिर यूं ही कुछ काम करते हुए, वो हर समय ऋतु का ध्यान रख रहा था और जब जरूरत पड़ती वो उसके लहंगे को थोड़ा उठाकर ऋतु की मदद करता। जब भी ऋतु का दुपट्टा फिसलता संजु का हाथ तुरंत उसे थाम लेता। यदि संजु लड़के के रूप में होता तो ये सब इतनी आसानी से करने का मौका उसे नहीं मिलता। पर अब ऋतु की सहेली बनकर तो जैसे उसे एक छूट मिल गई थी उसके साथ हर पल रहने की। लड़की का यह रूप लिए संजु बिल्कुल स्वाभाविक महसूस कर रहा था मानो वो जैसा है वैसे ही वह जी रहा था।

शादी का माहौल भी खुशी का था तो हर तरफ चहल पहल भी थी। संजु की मुलाकात ऋतु की नई सहेलियों से भी हुई, पर ऋतु की सबसे अच्छी सहेली तो संजु ही थी। कुछ ही देर में बारात आने वाली थी तो उसके पहले दुल्हन की माँ ने सभी सुंदर लड़कियों को एक जगह इकट्ठा किया और उनसे कहा कि जब बाराती आए तो वो सभी सबको एक एक गुलाब का फूल देकर स्वागत करे। इस काम के लिए ऋतु और संजु को भी चुना गया। दोनों अब दरवाजे पर साथ ही में बातें करते हाथों में गुलाब लिए खड़ी थी। जब बाराती आए तो सुंदर लड़कियों को देखकर तो कुँवारे लड़कों में होड सी लग गई कि वो अपनी पसंद की लड़की के हाथों से ही गुलाब ले। ऐसे ही कुछ लड़के संजु और ऋतु के पास भी आए थे पर इन दोनों को उनसे कहाँ फर्क पड़ने वाला था।

शादी की सारी रस्में हुई, हंसी ठिठोली हुई और उसके बाद सभी खाना खाने लगे। ऋतु और संजु ने भी ऋतु की कुछ सहेलियों के साथ मिलकर खाना लिया। कुर्सी एक जगह लगाकर संजु ने अपनी साड़ी के पल्लू को अपनी कुँहनी के पास लपेटकर अपने घुटनों को एक दूसरे पर रख अपनी साड़ी को संवार कर प्लेट लिए खाने को बैठ गई। ऋतु भी कुछ उसी तरह अपना दुपट्टा संभालती हुई बैठी तो संजु ने उसकी मदद की। सभी लड़कियां बातें कर रही थी तब संजु उठकर खड़ी हुई और बोली कि मैं तो थोड़े और गुलाब जामुन और दही बड़े लेने जा रही हूँ। ऋतु तुझे कुछ चाहिए?

ऋतु ने इशारे से मना किया और अपनी सहेलियों से बातें करने लगी। वहीं संजु पूरी नजाकत से अपनी साड़ी में पूरी शालीनता से चलते हुए काउन्टर की ओर गई जहां दही बड़े थे। वहाँ उससे एक लड़का बात करने लगा जिसे शायद संजु के हाथों की गुलाब का फूल मिला था। वो फूल अब भी उसके हाथों में था। उस लड़के की बातें सुनकर संजु की आँखें नीचे की ओर झुक गई जैसे वो शर्मा रही हो। लाज के मारे संजु एक हाथ से अपनी लटों को शरमाती लजाती सुधार रही थी पर उसका चेहरा तो मानो पूरी तरह लाल हो रहा था। संजु वहाँ से दही बड़े लेकर निकल ही रही थी कि उस लड़के ने संजु की बांह पकड़कर उसे रोका। ब्लॉउज़ पर उस लड़के की मजबूत गिरफ्त से मानो संजु थोड़ी शॉक में चली गई। वो कुछ कहती उसके पहले ही उस लड़के ने अपने हाथ से गुलाब लेकर संजु के बालों में लगा दिया। सबके सामने यह सब हुआ तो बेचारी शरमाती लजाती वहाँ से निकल कर अपनी सहेलियों के बीच चली गई।

शायद इस बात की कोई अहमियत न होती संजु के दिल में पर इस दृश्य को दूर से ऋतु ने देख लिया। संजु को इस तरह उस लड़के के सामने नजरे झुकाए देख उसे अच्छा न लगा। ये बात ऋतु की सहेलियों ने भी देख ली थी तभी तो एक ने संजु के आते ही पूछा, “आय हाय … सर पे गुलाब लगाकर कितना शर्मा रही है संजु। क्या कहा उस लड़के ने?”

“कुछ भी मत कहो तुम लोग। अब उसने जबरदस्ती की तो मैं क्या करती?”, संजु ने कहा।

“तो उसके सामने इतना शर्मा क्यों रही थी?”, दूसरी लड़की ने उसे छेड़ा।

“यार वो बस तारीफ किये जा रहा था। कह रहा था कि हमारी उम्र की लड़कियां आजकल साड़ी नहीं पहनती है और उसे मुझे साड़ी में देखकर अच्छा लगा।”, संजु ने जवाब दिया जैसे नॉर्मल बात हो।

“यार ये लड़के न मेरी समझ के परे है। मैं तो लहंगा चोली पहनकर आई थी कि ये सोचकर की मेरी पीठ और कमर देखकर कोई तो मुझे प्रपोज करेगा। लेकिन देखो लड़कों को साड़ी से पूरी तरह ढँकी लड़की पसंद आई।”, उस लड़की ने फिर कहा।

पर ऋतु को ये बातें बिल्कुल पसंद नहीं आई। वो झल्लाते हुए बोली, “बस करो न यार। तुम लोग बस लड़का लड़का करती रहती हो।”

कुछ देर में जब ऋतु की सहेलियाँ वहाँ से चली गई तो ऋतु बस संजु की ओर देखती रह गई जिसके सर पर अब भी वो गुलाब का फूल लगा हुआ था। “क्या संजु को वो लड़का पसंद आ रहा था?”, ये सवाल उसके मन में चल रहा था। शायद इसलिए उसका मन रूठ सा गया था। पर वो कुछ बोली नहीं। उसका दिमाग जैसे उसे समझा रहा था कि संजु अब लड़की है, वो अब ऋतु का बचपन वाला संजु नहीं है। न जाने क्यों संजु ऋतु की इस दुविधा को देख न सका। पर बचे हुए प्रोग्राम में ऋतु ने संजु से ढंग से बात न की। शादी के बाद दोनों अपने अपने घर आ गए।

अगले दिन भी ऋतु का मन कुछ भारी सा था। संजु से सभी बातें साफ किये बगैर उसे चैन न मिलता। शायद इसलिए वो सुबह ही संजु से मिलने उसके घर चली आई।

“अरे बेटा ऋतु, इतनी सुबह सुबह? संजु से मिलने ही आई होगी। जा वो ऊपर अपने कमरे में है।”, सुधा ने कहा।

संजु के कमरे की ओर बढ़ते हुए ऋतु का मन और व्याकुल हो रहा था। न जाने वो संजु को किस रूप में देखना चाहती थी। लेकिन संजु का वो पुराना रूप कम से कम अभी तो वापस नहीं आने वाला था। जिस बचपन के संजु की तस्वीर उसके मन में थी वो तो अब रहा ही न था। उसकी जगह तो एक सुंदर लंबी नवयुवती ने ले ली थी जो एक लड़के से अपनी तारीफ सुनकर कल शर्मा रही थी। एक घबराहट के साथ ऋतु ने संजु के कमरे का दरवाजा खोला। लेकिन उसे संजु कहीं दिखाई न दिया।

शायद संजु छत पर हो। संजु छत पर अकेले तभी जाता था जब उसे खुद से बातें करने का मन होता था। ये बात ऋतु भी जानती थी। ऋतु को लगा कि संजु को उसकी जरूरत है और उसे खुद भी संजु की इस समय जरूरत थी। दोनों को ही तो इस समय एक दूसरे के सहारे की जरूरत थी।

छत पर संजु की आँखें कहीं दूर देख रही थी जैसे उसके सवालों का जवाब ढूंढ रही हो। उसे लगा था शायद समय के साथ उसके सवालों का जवाब उसे मिल जाएगा पर आज भी वो हल तलाश रहा था। उसके रेशमी लंबे हवा में उड़ते बाल इस बात को झुठलाते थे कि वो सोच रहा था। देखने वालों की आँखें तो उसमे लड़की ही देखती थी।

अचानक ऋतु को छत पर पाकर जैसे उसकी तंद्रा भंग हुई। अपनी उलझन को छिपाता हुआ उसने मुस्कुराकर ऋतु से कहा, “ऋतु तू कब आई?”

“बस अभी आई हूँ संजु।”, वो बोली, “तुझे कल के लिए सॉरी बोलने आई हूँ। न जाने क्यों कल जब तुझे उस लड़के से बात करते देखा तो मुझे अच्छा नहीं लगा था।”

संजु मुस्कुरा दिया और फिर दूर कहीं आसमान में देखते हुए बोला, “तेरी गलती नहीं है ऋतु। मेरी उस लड़के से बात करने की कोई इच्छा नहीं थी। वो खुद ही बात करने लगा तो जैसे एक लड़की की मजबूरी समझ मैंने बस उसका जवाब दिया था। पर फिर जब वो मेरी तारीफ करने लगा तो पता नहीं क्यों मुझे तारीफ सुनकर अच्छा भी लग रहा था। खुद को सुंदर महसूस कर रहा था।”

“तू सचमुच सुंदर है संजु।”

“हम्म … हो सकता है ऋतु। लेकिन मेरी बात का यकीन कर … मेरा उस लड़के में किसी भी तरह का इंटरेस्ट नहीं है। मैं जानता हूँ कि मेरे रूप और शरीर की वजह से शायद तुझे लगता होगा कि मैं किसी और लड़की की तरह लड़कों से …”, संजु उस बात को पूरी न कर सका।

एक अच्छे दोस्त की तरह ऋतु संजु के पास आकर उसका हाथ पकड़ जैसे उसे साहस दे रही थी।

“मैं लड़की नहीं हूँ ऋतु।”, संजु ने आगे कहा। उस स्थिति का विरोधाभास दोनों को व्याकुल कर रहा था। माथे पर छोटी सी बिंदी लगाए संजु ने एक गहरे रंग की साड़ी पहन रखा था उस समय। किसी ने उसे साड़ी पहनने के लिए आज मजबूर तो नहीं किया था फिर स्वयं ही इस तरह सजकर ये कहना कि मैं लड़की नहीं हूँ ये विरोधाभास ही तो था।

“मैं जानता हूँ कि तू सोच रही होगी कि फिर मैं ये साड़ी, ये चूड़ी क्यों पहनता हूँ? लड़की न होते हुए भी न जाने क्यों मुझे ये सब पहनकर एक सुकून मिलता है। लगता ही नहीं कि मैं इनके लिए और ये मेरे लिए नहीं बने है।”

“तू ऐसा क्यों सोच रहा है संजु? हम तो इस बारे में पहले भी बात कर चुके है न? तू कुछ भी पहने इससे तू बदल तो नहीं जाता न?”

“ऋतु … मैं बहुत कन्फ्यूज़ हो चुका हूँ यार। समझ नहीं आता क्या करूँ। मम्मी-पापा कुछ कहते नहीं है पर उन्हे भी शायद लगता होगा कि मैं फिर से उनका बेटा बन जाऊँ या फिर सोचते होंगे कि बेटा न सही पूरी तरह से लड़की ही बन जाऊँ। मैं इतना बदल चुका हूँ ऋतु कि शायद मैं अब … मैं निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ, ऋतु।”, संजु एक बड़ी तकलीफ में था शायद तभी तो ऋतु के कंधे पर सर रखकर वो उसका सहारा ले रहा था।

“संजु एक बात बोलूँ? तुझे निर्णय लेने की जल्दी क्या है? अब तो सब कुछ ठीक चल रहा है।”

संजु जैसे कुछ कहना चाहते हुए भी न कह पा रहा था। किसी तरह उसने हिम्मत कर ऋतु का हाथ पकड़ झुकी नज़रों से कहा, “जल्दी है ऋतु। क्योंकि मैं तुझसे प्यार करता हूँ।”

ऋतु के लिए ये शब्द बहुत मायने रखते थे। फिर भी इतना आसान न था सब। “तो मैं कहाँ भागी जा रही हूँ? मैं तो हूँ न यहाँ।”, जैसे वो संजु को दिलासा दे रही थी। वो भी नहीं जानती थी कि उसका रिश्ता संजु के साथ आगे किस रूप में बढ़ेगा।

संजु तो जैसे ऋतु से आँखें नहीं मिला पा रहा था। और फिर खुद की आँखों से आँसू पोंछते हुए वो धीरे धीरे छत की दूसरी ओर बढ़ गया। उसकी साड़ी और लहराते बाल में दूर जाते संजु को ऋतु बस देखती रह गई।

उस दिन के बाद से न संजु ने और न ही कभी ऋतु ने एक दूसरे से प्यार के बारे में बात की। ४ साल हो गए थे उस बात को। इस विषय के बारे में बात करना उनके लिए आसान नहीं होता था। शायद इसलिए एक दूसरे से हमेशा जुड़े होने के बाद भी दिल की बात दिल में ही रह जाती। यही अनकही बात आज इस मोड़ पर आ गई थी और अब ऋतु की शादी भी होने वाली थी।

ऋतु के लिए अपने दिल में प्यार ही था जिसकी वजह से संजु से ऋतु दूर हो रही थी। समय के साथ साथ संजु को लगने लगा था कि ऋतु को एक सामान्य अच्छे लड़के की जरूरत है। जब संजु अपने जीवन का निर्णय भी नहीं ले पा रहा था तो कैसे वो ऋतु को रोक सकता था? और कब तक?

डॉ रुचिता के कमरे में बैठी डॉ ये कहानी संजु के मुख से सुन रही थी। जब संजु चुप हो गया तब डॉ ने कहा, “संजु, वो लड़की ४ साल से नहीं बल्कि बचपन से तुम्हारा इंतज़ार कर रही है। और तुम्हारी ज़िंदगी का डिसिशन लेने का इंतज़ार सिर्फ वो नहीं मैं भी कर रही हूँ। तुम्हारी एक हाँ कहने की देरी है और मैं तुम्हें तुरंत सर्टिफिकेट दे दूँगी जिससे तुम सर्जरी कराकर हमेशा हमेशा के लिए लड़की बन जाओगी। आज तुम्हें अपना डिसिशन लेना ही होगा संजु।”

पर ऐसे कैसे ये डिसिशन ले लेता संजु? वो कुछ न बोला बस कोरी नज़रों से नीचे देखता रहा। सहेजता रहा अपनी उस साड़ी को जिसे अब वो देखना भी नहीं चाह रहा था। काश उसके शरीर में वो एक्स्ट्रा x क्रोमज़ोम न होता तो न आज ये साड़ी होती और न ही उसे ये निर्णय लेना पड़ता। एक पल को तो संजु को ऐसा लगने लगा जैसे अब ऋतु की शादी हो रही है तो उसके पास अब खोने को कुछ और बचा नहीं है। तो क्यों न वो भी पूरी तरह से लड़की बन जाए पर कहीं न कहीं उसे कुछ रोक रहा था।

डॉ रुचिता एक प्रख्यात सिकाइअट्रिस्ट थी। संजु का मनोभाव और संघर्ष उनसे छुपा न था।

“संजु तुमने सिंडरेला की कहानी सुनी है?”

रुचिता की ये बात सुन संजु थोड़ा आश्चर्य में था। उसने हामी में सर हिलाया पर उसकी नजरे ऊपर न उठी।

“सिंडरेला अपनी सौतेली माँ और दो सौतेली बहनों के साथ रहती थी। उसकी माँ और बहने तीनों ही बहुत कुरूप थी लेकिन खुद को हमेशा मेकअप और अच्छे कपड़ों से सजाती थी। और सिंडरेला को फटे पुराने कपड़े देती थी और उससे घर के सारे काम भी करवाती थी। एक दिन जिस राज्य में वो रहा करती थी वहाँ के राजकुमार ने राज्य की सारी कुंवारी लड़कियों को महल में बुलाया। पूरे राज्य की लड़कियां राजकुमार से शादी करने के सपने पाले उस दिन जाने को तैयार थी। सिंडरेला की बहने भी। लेकिन सिंडरेला को जाने से उसकी सौतेली माँ ने मना कर दिया। वैसे भी मन ही मन सिंडरेला को उसकी माँ और बहनों ने विश्वास दिला दिया था कि फटे पुराने कपड़ों में रहने वाली सिंडरेला एक कुरूप लड़की है।”

“लेकिन एक लाल परी थी जो जानती थी कि सिंडरेला कितनी अच्छी है। इसलिए उस परी ने रात को आकर सिंडरेला को अच्छे कपड़े और साथ में नौकर और एक घोडा गाड़ी दी ताकि वो राजकुमार के महल जा सके। उस परी के जादू से सिंडरेला खूबसूरत कपड़ों में खुद किसी परी से कम नहीं लग रही थी। लेकिन आधी रात पूरी होने के पहले सिंडरेला को अपने घर वापस आना था वरना परी का जादू टूट जाता और राजकुमार को सिंडरेला की असलियत पता चल जाती। इसके आगे क्या हुआ था तुम्हें तो पता ही होगा?”

संजु ने हामी में सर हिलाया फिर भी रुचिता अपनी कहानी सुनाने में मगन रही।

“उस रात जब समय हो गया तब सिंडरेला भागी भागी अपनी घोडा गाड़ी तक पहुंची थी। भागते भागते उसकी एक कांच की सैंडल वही राजकुमार के पास छूट गई थी। राजकुमार अब उस खूबसूरत लड़की को पूरे राज्य में ढूँढने लगा। हर लड़की को वो सैंडल पहना कर देखता था कि वह किसके पैरों में फिट आएगी। सिंडरेला इस बात से अवगत थी फिर भी वो घर से बाहर निकलकर कभी राजकुमार से मिलने न गई। क्योंकि उसे यकीन था कि वो खूबसूरत सिर्फ लाल परी के जादू से हुई थी। जब पूरे राज्य की लड़कियों से मिलने पर भी राजकुमार को वह लड़की न मिली तो उसने पता लगाया कि किस किस घर में उस उम्र की लड़कियां है जो राजकुमार से मिलने न आई थी। और इस तरह राजकुमार को सिंडरेला के घर के बारे में पता चल और जब वहाँ उसने सिंडरेला को वो सैंडल पहनाई, तब जाकर राजकुमार को अपने लिए एक राजकुमारी मिली।”

कहानी सुनाते सुनाते रुचिता चुप हो गई।

“तुम जानती हो सिंडरेला की प्रॉब्लम क्या थी?”, रुचिता ने संजु से पूछा।

संजु तो अपनी प्रॉब्लम लेकर आई थी पर डॉ रुचिता उससे ही सवाल कर रही थी। मन ही मन चिढ़ते हुए संजु ने मना किया।

“ठीक है। मैं ही बता देती हूँ। सिंडरेला को लगता था कि वो एक कुरूप लड़की है क्योंकि ऐसा उसकी माँ और सौतेली बहनों ने यकीन दिला दिया था। इसलिए उसे ऐसा लगता था कि वो खूबसूरत सिर्फ लाल परी के जादू से बन सकी थी। राजकुमार तो सिंडरेला को देखते ही पहचान गया था पर सिंडरेला की झिझक से वो समझ गया था कि क्या मामला है। इसलिए उसने सिंडरेला को वो सैंडल पहनाई थी ताकि सिंडरेला को अपनी असली सुंदरता का एहसास हो। राजकुमार ने उसे यकीन दिलाया था कि उसकी सुंदरता के लिए उसे किसी लाल परी के जादू की जरूरत न थी। सिंडरेला जैसी थी वो वैसी ही सुंदर थी। अब तुम्हें कुछ समझ आया?”

डॉ रुचिता गौर से संजु की ओर देखती रही।

कुछ देर बाद आखिर संजु के मुख से शब्द निकले, “बहुत ही बेकार कहानी है डॉ रुचिता!” इतनी देर में पहली बार संजु के मुंह से कुछ जोर से आवाज निकली।

और फिर अपने आँखों से आंसुओं को पोंछते हुए वो हँस पड़ा। और डॉ रुचिता भी हँस पड़ी। “जानती हूँ ये मेरी कहानी का वर्णन बहुत खराब है।”

संजु ने आखिर अपने सर ऊपर उठाया और अब उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी। संजु ने अपनी सुनहरी साड़ी के पल्लू से खुद को ओढ़कर कहा, “आप सच में बहुत खराब तरह से कहानी सुनाती हो। आप सीधे सीधे ये बात पीछले ६ साल में पहले नहीं कह सकती थी?”

“क्योंकि संजु बेटा, हर बात का एक सही समय होता है। और तुम्हारे जीवन का निर्णय तुम्हें लेना है मुझे नहीं। तो अब बताओ कि तुम्हें क्या समझ आया?”

“… वही जो मुझे सालों से पता था पर मान नहीं रहा था। यही कि मैं संजु हूँ … मुझे लड़का या लड़की होने की जरूरत नहीं है। मैं जैसा हूँ जो भी हूँ, मुझे बदलने की जरूरत नहीं है। जब इस दुनिया में लोग चाहे XX हो या XY क्रोमज़ोम के साथ जन्में हो, वो अपने शरीर के अनुरूप कपड़े पहनते है, उठते बैठते है, वो तो अपने शरीर को नहीं बदलते। उन्ही की तरह मैं XXY के साथ जन्मा हूँ और मैं भी अपने शरीर के अनुरूप कपड़े पहनता हूँ, और मुझे भी अपने शरीर को बदलने की कोई जरूरत नहीं है।”

गर्व से सीना ताने इस समय उस कमरे में खड़ी हुई हमारी सुनहरी परी संजु आज अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से स्वीकार कर रही थी। उसे देख डॉ रुचिता भी उठ खड़ी हुई और संजु के पास आकर गले लगाते हुए बोली, “बेटा, आज मेरा काम पूरा हो गया। शायद तुम्हें यहाँ दोबारा आने की कभी जरूरत न पड़े। इसलिए मैं तुम्हें सफल जीवन के लिए आशीर्वाद देना चाहती हूँ। और सुनो, अब लाइफ में मुझसे दोबारा मिलों तो मुझे डॉ रुचिता नहीं बल्कि रुचिता आंटी कहना। समझे? अब जाओ। तुम्हारी ऋतु तुम्हारा इंतज़ार कर रही होगी।”

संजु के लिए मानो ये नया जीवन देने वाला पल था। बेहद भावुक। अब उसकी आँखों में आँसू खुशी के आँसू थे। रुचिता आंटी से गले लगने के बाद उसने झुककर आंटी के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। और ऐसा करते वक्त उसे जब अपनी साड़ी के पल्लू को पकड़ना पड़ा तो उसे ऐसा न लगा कि ये उसे इसलिए करना है क्योंकि लड़कियां ऐसा करती है। बल्कि इसलिए करना था क्योंकि वो संजु है और संजु की साड़ी संजु ही तो संभालेगा। एक ही पल में अब वही हाव भाव और कपड़े जिन्हे वो पहले “लड़कियों जैसे” माना करता था अब वो वैसे न होकर “संजु जैसे” हो गए थे।

नए आत्मविश्वास के साथ अब जब संजु उस बिल्डिंग से निकला तो उसका नया जीवन शुरू हो गया था। टैक्सी लेकर घर जाते समय उसके दिल में जितनी बेचैनी थी इतनी पहले कभी न थी। आखिर आज उसे ऋतु का दिल जीतना था, कहीं सचमुच बहुत देर न हो गई हो। अब तक तो ऋतु वहाँ पहुच भी चुकी होगी उसके फ्लैट में। संजु ने बिल्डिंग के गार्ड को पहले ही घर की चाबी दे दी थी ताकि ऋतु फ्लैट के अंदर जा सके। ये आधे घंटे का रास्ता इतना लंबा लग रहा था …

अपनी बिल्डिंग में पहुचते ही संजु दौड़ा दौड़ा सीढ़ियों से चढ़ने लगा। अब न तो उसकी हील और न ही साड़ी उसे ऋतु तक पहुँचने से रोक सकती थी। और घर पहुंचते ही उसने दरवाजा खोला तो अंदर ऋतु खड़ी थी। हमेशा की तरह अपनी प्यारी सी स्माइल के साथ। इतनी खूबसूरत जितनी पहले कभी न लगी हो। वो ५ कदम की दूरी अब संजु से बर्दाश्त न हुई और वो दौड़ कर ऋतु से गले लग गया। आँसू एक बार फिर बह निकले।

ऋतु को ज़ोरों से गले लगाकर उसने रोते हुए कहा, “मैं आ गया हूँ ऋतु। हमेशा हमेशा के लिए। अब मैं तुझे छोड़कर कभी नहीं जाऊंगा।”

ऋतु ने भी उसे प्यार से गले लगाते हुए धीमे से बोली, “इतनी देर क्यों कर दी आने में संजु?”

“अब भी इतनी देर नहीं हुई है ऋतु। हम अब भी साथ हो सकते है न?”, संजु ने ऋतु के दोनों हाथों को अपने हाथों में पकड़ कर जैसे ऋतु से भीख मांगी।

पर ऋतु सिर्फ मुसकुराती रही। उसकी आँखें चमक रही थी उन मोतियों के साथ जो संजु के इंतज़ार में न जाने कबसे थी। उसने सिर्फ इतना कहा, “मेरी एक शर्त है। मानेगा?”

“कैसी शर्त? मैं सब मानूँगा!”, संजु से अब सहा नहीं जा रहा था।

“हमारी शादी में लहंगा चोली मैं पहनूँगी। मैंने बचपन से लहंगा पहनने का सपना देखा है। तुझे साड़ी से काम चलाना पड़ेगा। बोल मंजूर है?”

संजु को तो जैसे ऋतु की बात सुनकर यकीन ही नहीं हुआ। हँसे या रोए उसे समझ न आया और दोनों ही हँसते हुए रोते हुए गले लग पड़े। दोनों आखिर आज एक हो रहे थे। एक ही दिन में संजु की तकदीर ही बदल गई।

“मम्मी पापा, अंकल आंटी, संजु आ गया है।”, संजु से थोड़ा पीछे हटते हुए ऋतु ने खुशी से आवाज लगाई तो अंदर के कमरे से ऋतु के मम्मी पापा और संजु के मम्मी पापा बाहर निकल आए।

“देर आए दुरुस्त आए।”, संजु के पापा ने कहा।

सबको देखकर तो संजु की खुशी का ठिकाना न रहा।

“तुझे छोड़कर सभी शादी के लिए कबसे तैयार बैठे हुए थे”, ऋतु ने संजु को बताया।

तभी सुधा आगे बढ़कर बोली, “ऋतु बेटा, अबसे आंटी नहीं मम्मी जी कहने की आदत डाल लो। अब सास हूँ मैं तुम्हारी।”

“और संजु, देख क्या रहा है? चलो अपने सास ससुर के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लो।”, सुधा ने संजु से कहा।

संजु आगे बढ़ ही रहा था कि सुधा ने उसे रोका। और संजु की साड़ी के आँचल से उसके खुले ब्लॉउज को ढंका और फिर उसके सर पर पल्लू चढ़ाती हुई बोली, “अब पल्लू को ऐसे पकड़ो। बड़े शहर में आकर संस्कार भूल गई है।”

“ये तो गलत बात है माँ। मैं पल्लू से सर ढँकूँ और ऋतु?”, संजु ने कहा तो सभी हँस पड़े।

“ऋतु भी सर ढँकेगी। उसकी चुन्नी है न?”, सुधा बोली।

और फिर संजु और ऋतु ने मिलकर ऋतु के मम्मी पापा से आशीर्वाद लिया।

“सौभाग्यवती भव”, ऋतु की मम्मी का ये आशीर्वाद किसके लिए था? शायद दोनों के लिए ही था।

ये पल संजु के लिए इतना खुशी का था कि आज ये खुशी के आँसू थमने का नाम ही न ले रहे थे। सबको अपने पास पाकर कितना खुश था वो। कुछ देर पहले का दुख अचानक ही यूं इतनी खुशियों में बदल गया था। सबसे आशीर्वाद लेने के बाद संजु ने ऋतु से पूछा, “ये सब कैसे हुआ? वो शादी का मैसेज? और सब कैसे मान गए?”

“सब प्लान आंटी का था। उनका कहना था कि वो माँ है और वो जानती है कि संजु के दिल में क्या है।”, ऋतु ने बताया।

संजु अपनी माँ की ओर कृतज्ञता से देखता रह गया। वो कुछ कहता उसके पहले ही सुधा बोल पड़ी, “अब हम लोग संजु के घर आए है तो आज का खाना संजु के हाथ का ही खाएंगे।”

तो संजु ने जवाब दिया, “मैंने तो सुना था कि सास काम करवाती है यहाँ तो मेरी माँ ही मुझसे इतना काम करवा रही है।”

और एक बार फिर सब हँस दिए।


क्रमश:

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